ज्ञानीचोर की कविताएं
शीर्षक – धूल उड़ाती गाड़ियों के बीच
विधा – कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन- 332027
मो. 9001321438
धूल उड़ाती गाड़ियों के बीच
गुजरता हुआ आदमी
किसी भटकती आत्मा के जैसे
डराता नहीं हर किसी को
परन्तु मसला जाता है
बरसाती कीड़े के जैसे।
ये जो आदमी पैदल है
अभिशाप है विकास पर
जिस पर सवार है भूगोल
खगोल का काव्य पाठ।
कीटों पर छीड़के जायेंगे
रासायनिक पदार्थ
स्वस्थ और ज्यादा होगी
फसलों के मौसम…!
आदमी बीमार थोड़ी होता है
बस डॉक्टर ज्यादा हो गये
इसलिए ग्राहक भी ज्यादा…!
टायर के नीचे चिपक गया
बिखर भी गया तो
आदमी का कुछ हो न हो
खबर तो बन ही जायेगी!
तहकीकात और तपतीस
जुर्म कबूल करने पर भी
नोटों का रसायन
दिव्यास्त्र है अपराधियों का
अदालतें ठप्प नहीं तो
फाईल दब जाती है
‘भोलाराम का जीव’ जैसे
हर बार परसाईं जी
नहीं लिख सकेंगे व्यंग्य
पर आदमी पैदल बुरा लगता है।
इसलिए कानून की पैरवी में
आयेंगे नये कानून शीघ्र
जो जोड़ेंगे भानुमता का कनवा
और होगा पानी का पानी
दूध की मलाई निकाल
दही बनेगा तभी पता लगेगा
नये उत्पादन-वितरण का।
२
शीर्षक – एक के बाद एक उदासी…!
विधा – कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन – 332027
मो. 9001321438
एक के बाद एक उदासी
चल रही थी गंतव्य पथ
बैचेन कठोर सतह पर
हृदय की कोमलता बिछी
रास्तें रहे तलाशते
भविष्य की चादर में
पैर पसारें कब गये थे।
आशा-गुदड़ी के धागे
होते रहे कमजोर
फटेहाल नग्न होकर
कुरेदते अपने विचार
मिलता न क्षोभ हर बार
कभी-कभी रहस्य सुलझते
कभी उलझते रहते
क्षुद्रता के अवशेष।
किसी गहरी साँस के साथ
उलझती थी एक तस्वीर
कहती तो क्या?
पर भावधारा बह जाती
रूप विचित्र बनकर
खिसक जाती ओझल हो
दायरें के किनारे जैसे ही छूटते
मौन छा कर ऊठते रहते
कुछ तरल झरने
बैठ जाते शीघ्र ही
पदचिह्न छोड़कर
अवसादों के अवसर में
झलकती रहती स्मित-हास
आवरण के पर्दे झीने न थे
शब्द-रूप के बाहर भी
अंदर भी बिखरते
और फूटते कुछ अंकुर।
३
शीर्षक – सक्रियता के दायरे!
विधा – कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन. 332027
मो. 9001321438
सक्रियता के दायरे
निर्भर है गर्भ पर
पाई हुई दशाओं पर
जिससे मिली ऊर्जा पर।
आवरण में कैद सक्रियता
छल है सगर्भा के जीन का
या पाये हुए जीन का।
सत्य पलता रहा
झूठ चलता रहा
भ्रम के कायदे भी
साथ निभाते रहे
सत्य छूटा,एक तारा टूटा
पड़कर धँसा गड्डा गहरा
बना क्रेटर झील सा
जिसमें सत्य के अलावा
सब फैला विश्वास के साथ।
अब झील सत्य है
क्रेटर एक कहानी है
सत्य स्वरूप परिवर्तित होकर
घटा रहा नई घटना
झूठ के फैलाव हेतु
सहतत्वों के विस्तार हेतु।
बदल रहा स्वरूप सत्य
आदमी झूठ के सौदागर
कवि बन परोसते है
हल्का सा सत्य आभास
बन जाते है विधाता
गढ़कर कविता हर बार
अक्षरों के संसार का
शब्दों के सागर का
बातों के बवंडर का।
भाव का अभाव भी
बड़ा दिखाते हर बार
लक्ष्मी हेतु वाणी से छल।
४
शीर्षक – चौराहें की पुकार!
विधा – कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन 332027
मो. 9001321438
मैं पुकारता गया हर चौराहें को
धूल से सनी चौड़ी सड़के भी।
फैली किसी राक्षस जिह्वा सी
पुकारता रहा सुनसान फिजा को।
आदमी न थे यहाँ रास्ते पर
सिर्फ बेडोल मूर्ख मूर्तियों बीच
दौड़ थी अंधे समाज की
मोहल्लें में राजनीति शह
मार देती प्यादे से सरल को।
पुकार रहा इन पुरानी दिवारों को
निकले कोई छुपी आत्मा के स्वर
शायद! बोल पड़े अतीत खंडहर
दफन हुए राज जिंदा हो जाये
पर! आदमी की जुबान पर ही,
नहीं है पहरा,आत्मा भी कैद है।
पुकार प्रतिध्वनि लौट आती फिर
राजनीति के गंदे शिखर से टकराकर
काट डाला शीश द्रोण का द्रुपद सुत ने
नहीं नहीं नहीं! ये वो राजनीति थी
जिसने झौंक दी कोख के उपजे हीरें!
चिंतित पुकार लिए फिर रहा हूँ युगों से
पर उद्धार कब हुआ है अश्वत्थामा का!
मन के कोने खाली है द्वापरयुग से
कैद है आत्मा आदमी के कपट में
जादूगर है हर कोई बस रंगमंच अलग है।