सूर्य रश्मियाँ
प्रथम किरण ले दिनकर आए,
सहर प्रथम पहर जग मुस्कुराए।
लालिमा नील अम्बर पर छाए।
सुनहरा वातवरण मन गुनगुनाए।
धीमा धीमा सूरज चढ़ता,
जैसे आसमान पर आगे बढ़ता
परिवर्तित लाल रश्मियाँ देखो,
आसमान पीले वस्त्र पहनता।
धूप गुनगुनी सी फिर उतर आए
ओस की बूंदें,कुसुम पल्लवित,
तरुपर्णो में हँसती इठलाए।
अपराह्न में तेज रश्मियाँ सर पर चढ़ती
और परछाइयाँ पग पर आ जाए।
जन जीवन भी थोड़ा मुरझाए।
अब बेला सांध्य की आए,
किरणें सूरज की क्षितिज को भाए।
सिंदूरी सा लाल हुआ अब अम्बर,
पंछी लौटे नीड़ को अपने,
धूल उड़ाती गायों के पगचिह्न,
बेला गोधूलि,
सूर्य रश्मियाँ हों आनंदित,
क्षितिज की गोद में जा समाए।
दीपा साहू “प्रकृति”
रायपुर (छत्तीसगढ़)