मेनलैण्ड का आदमी -समन्दर समन्दर
समन्दर पानी का नहीं बादलों का था। जंगल पेड़ों के नहीं बादलों के थे। दूर तक क्षितिज में जो पहाड़ों की चोटियां दिखाई दे रही थीं वे पहाड़ पत्थरों के नहीं बादलों के थे। रुई के मानिन्द फैले हुए थे। रुई की ढेरियां पड़ी हों वहां तक जहां तक हम देख सकते हैं। इन रुई की ढेरियों के बीच चॉद कहीं कहीं दिख जाता है। जैसे किसी नाटक के लिए लगाया गया सेट्स हो। जिसमें सजाने वाले ने चॉद भी सजा कर रख दिया हो। यह कभी खिड़की के पास दिख जाता है। लगता है खिड़की से सम्हलकर थोड़ा हाथ बाहर कर लो तो चांद अपने हाथ आ जाएगा। चॉद हर बार उपर नहीं होता कभी नीचे भी हो जाता है। कितना अजूबा लगता है जब हम उपर झांककर नहीं नीचे झांककर चांद को देख रहे हों किसी ठहरे हुए पल में।
जैसे बादलों ने अपने बीच थोड़ी सी जगह दी हो। या किसी ने रंगमंच का परदा सरका दिया हो। अराकन योमा पर्वत माला किसी चौकोन पानदान की तरह दृष्टव्य हुआ। भूरी भूरी किनारी के बीच सपाट नीलापन। कहा नहीं जा सकता था कि जल के भीतर थल है या थल के भीतर जल है। ‘नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है’ की सी भ्रान्ति जैसे कई मायनों में ज़िन्दगी का एक हिस्सा हो। कभी हम कहते हैं कि दुनियां का तीन चौथाई तो जल है और एक चौथाई थल है। लेकिन जल थल दोनों से बनी पृथ्वी तो एक ठोस गोला है। जिसमें हर जल की थाह कहीं न कहीं थल में ही मिलती है। हाहाकार दोनों ही जगह है। जल का अमानवीय हाहाकार है तो थल का मानवीय हाहाकार है। बकौल शलभ श्रीरामसिंह – ‘पैगम्बर, अवतार या चमत्कार ने नहीं, एक अंतहीन हाहाकार ने बचाया है पृथ्वी को।‘
यह अंतहीन हाहाकार ही तो है कि हजारों मीलों के सागर के भीतर कोई छोटा टापू दिख जाता है। हजारों सालों से जलसागर का विराट और रौद्र रुप है तो उन्हें चुनौती देता मनुष्य समुदाय की ज़मीन का एक टुकड़ा है। जमीन के ऐसे टुकड़े उस जलसागर में जहां कहीं भी हैं डटे हुए हैं अपने अपने मोरचे पर। कितने कितने जल प्रलयों के बाद भी वहां जीवन है और इस जीवन के लिए उनकी जद्दोजहद है।
‘वी आर नम्बर थ्री इन लैंडिंग सीक्वेंन्स।‘ अभी हम चौंतीस हजार फुट की उंचाई पर हैं भीतर का तापमान पन्द्रह डिग्री सेल्शियस और बाहर शून्य से नीचे पन्द्रह डिग्री ‘सॉरी फार गेटिंग वन अवर लेट।‘ उद्घोषक ने औपचारिक खेद प्रकट किया पर यहां जो घंटे भर से मन अभिभूत हो रहा था उसके लिए उनके विलम्ब कर देने के प्रति कृतज्ञता थी।
पीछे छोड़ आए थे हजार मीलों का समन्दर। एक बार उड़ान भरी तो सीधे समन्दर के उपर और साढ़े तीन घंटे सागर के ही उपर। फिर भी किसी विमान के बंगाल की खाड़ी में गिरने की खबर नहीं आती। जड़ मशीनों पर भी चैतन्य जीव जैसा नियंत्रण और विश्वास!
उपर अंतहीन आसमान का एक नीला सागर है। समन्दर के उपर समन्दर। बादलों के सागर को भेदते हुए कभी हम एक झटके से नीचे आते हैं तो नीचे लहराता जल सागर है। समन्दर के नीचे समन्दर। पारदर्शी तो कोई तब होता है जब भेद पाने वाली नजर हो। सूर्य की तेज किरणें सागर को उसकी तह तक भेद रही थीं तब सागर को पारदर्शीय होना ही था।
सतह के नीलेपन के भीतर जो भूरा रंग उभर आया था वह हमारी धरती का था। मटमैला भूरा रंग एकदम जाना पहचाना और अपना अपना सा लगता हुआ। जब जब भी धरती का यह लौकिक रुप दिख जाता है सारी अलौकिक शक्तियों का आतंक खत्म हो जाता है। अपोलो ग्यारह के यात्री एन्ड्यू एल्विन की तरह जिसने चांद से पृथ्वी को देखकर कहा था “वह देखो हमारी पृथ्वी!’ उसने कहा कि “’काश दुनियां के तमाम भ्रष्ट नेता चांद से पृथ्वी को देख पाते तो उनकी साम्प्रादायिक और पृथकतावादी मानसिकताएं दूर हो जातीं।“
एन्ड्रयू की तरह मैंने भी देखा धरती के उस टुकड़े को जो हमारी मुख्यभूमि से बारह सौ समुद्री मील दूर है इस विराट सागर के बीच। जिसे शताब्दियों की बड़ी से बड़ी सुनामी भी नहीं डिगा सकी। समुद्र की गोद में रहकर थपेड़े खाते हुए भी अपने पूरे सौन्दर्य के साथ उपस्थित है। जहां रहने वालों में सौन्दर्यबोध अब भी कोई कम नहीं हुआ है। आदमी निखरता वहीं है जहां थपेड़े खाता है। जहां थपेड़े नहीं है वहां अपनी दोहरी और फूलही देह में वह पड़ा रहता है अपने निकम्मेपन के साथ। एक भावहीन चेहरे के साथ ज़िन्दगी को बस काटते हुए। कभी जिन्दगी को वह काटता है और कभी ज़िन्दगी उसे काटती है।
समुद्री गोद में उभरी सुंदरता। उत्तर से दक्षिण तक पांच सौ से अधिक छोटे बड़े टापुओं को लेकर आठ सौ किलोमीटर की लम्बाई में फैला आइलैण्ड अब हमारे सामने था। जैसे हम किसी बेकरी की बड़ी और शानदार दुकान में घुस गए हो और हमारे सामने पड़े हों केक, ब्रेड, पिज्जा, बरगर, पैटीज और क्रीमरोल की अलग अलग डिजाइनें। कुछ इस तरह से उभर आया था टापुओं का यह समूह दृष्य।
“विदिन टेन मिनट्स वी शैल बी ऑन द लैण्ड।“
वीर सावरकर एयरपोर्ट। सावरकर यहां छाए हुए हैं राजकीय स्तर पर। सेल्युलर जेल में भी उनकी गाथा अधिक है। जिसमें उनके ’स्कॉलर’ होने का पता तो चलता है पर ’मूवमेन्ट्स’(आन्दोलनों) का नहीं। लोगों के दिलों में कितने हैं इसका अन्दाजा नहीं लग सका। हैं तो यहां अधिकतर उन स्वाधीनता सेनानियों के वंशज जिनकी चौथी और पांचवीं पीढ़ी है। पर जीने की जद्दोजहद के बीच उन्हें फुरसत नहीं है उनके सुमिरन की। यहां मुख्यभूमि की तरह किसी महापुरुष का झण्डा लेकर नारे लगाने और उनकी जय जयकार करने का चलन शायद नहीं है। पर कहीं कहीं विशाल होर्डिंग में अम्बेडकर के चित्र दिख जाते हैं बहुसंख्यक तमिलों के कारण। ऐसा चेन्नई में भी देखने को मिला। दरअसल महाराष्ट्र के बाद अम्बेडकर का ज्यादा प्रभाव तमिलनाडु में है।
“वेलकम.. मिस्टर विनोद शो फ्राम मेनलैण्ड”
तख्ती में मेरे कुलनाम का स्पेलिंग कुछ ऐसा था कि वह ’साव’ नहीं ‘शो’’ बन गया था।
‘शो मस्ट गो ऑन!’ मैंने तख्ती वाले नौजवान से हाथ मिलाते हुए कहा था। फिर दूर खड़ी उसकी ओमनी तक ट्राली में अपनी लगेज लेता चला था।
“फ्लाइट में आपको तकलीफ तो नहीं हुई सर?” उसने औपचारिक होते हुए पूछा था।
“नहीं!” मुझे गर्मजोशी से केवल यही बोलना था।
उसकी उम्र कम ही रही होगी – “’हॉ मैंने अभी सीनियर सेकेण्ड्री ही किया है आर्ट्स ग्रुप में। कॉलेज में एडमिशन लेना है।’ आजकल साइंस की पढाई की आपाधापी में कोई आर्ट्स ग्रुप का छात्र निकल जाए तो सुखद आश्चर्य होता है।
“नाम?”
“वसीम!”
एक खूबसूरत मासूम मुसलमान लड़का अब मेरे साथ होगा, यह मुझे अच्छा लगा। वे अच्छे और ईमानदार गाइड होते हैं। अब तक के तजुर्बों से यही जाना है। वसीम भी नफासत पसंद किशोर लग रहा था। वह शाही घराने से ताल्लुक रखने वालों की तरह धीरे बोलता था। कुछ पूछने से नहीं खाता था। उसके पूर्वज लाहौर की ओर से आए थे। किसी साजिश का आरोप लगाकर पकड़ लिए गए थे उसके परदादा। यहीं सेल्युर जेल में लाए गए। यातना भरी जिन्दगी जी। फिर यहीं बसने को मजबूर हुए उन सैकड़ों कैदी सेनानियों के बीच जो फिर कभी न जा सके थे मेनलैण्ड (भारत की मुख्यभूमि) की ओर। छूट गयी थी उनकी अपनी ज़मीन अपने लोग। यह मर्मभूमि ही उनकी कर्मभूमि बन गई थी। उनकी तीन चार पीढ़ियों तक की संतानें मेनलैण्ड नहीं देख पायी।
क्रमशः…
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– विनोद साव (अक्षरपर्व में प्रकाशित यात्रावृत्तांत ‘मेनलैंड का आदमी’ की पहली किश्त) चित्र: पोर्टब्लेयर का हवाई दृश्य.