जब मैंने देखा धुआँधार
कोई फकीर , बन राहगीर,
नर्मदा तीर, हिम सा शरीर,
वह परम वीर, भू चला चीर,
गर्जन अधीर, कहता समीर ।।
फेनिल तरंग , ऐसी धुअंग,
जैसे अनंग रति संग- संग,
चढ़कर तुरंग,भरकर निषंग,
मारे कुरंग , कहते विहंग ।।
कर लो इस तट पर भी विहार ।
जब मैंने देखा धुआँधार ।।
यह उच्छवास, या अधःश्वास,
उल्लासभास , या अट्टहास ,
मन का विलास, या प्रकृतिरास,
धौला लिबास , या बस कपास।।
दुविधायें देता, बार – बार ।
जब मैंने देखा धुआँधार।।
जल का निपात, कह लो प्रपात,
बिछती बिछात, दिन और रात,
मिटती अघात , हो रही बात ,
यह है अजात, कहता प्रभात।।
उस जल गति में, है गति अपार।
जब मैंने देखा धुआँधार।।
गिरेन्द्र सिंह भदौरिया “प्राण” इन्दौर
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