मैं पथिक हूँ गीत का अरु, गीत ही अंतिम सहारा
भाव की बहती धराएँ, दे रहीं हमको किनारा
मैं पथिक हूँ गीत का अरु, गीत ही अंतिम सहारा।।
सुरसरि में शब्दों की मैं, नित्य ही गोते लगाऊँ।
वेदनाओ की छुअन से, है मिला वह गीत गाऊँ।
लालसा बनकर दिवाकर, दूर कर दूं तम घनेरा।
लुप्त उर अनुभूतियों से, हो न बोझिल अब सबेरा।
मर चूकी संवेदना से, मान लूँ क्यों निज को हारा।
मैं पथिक हूँ गीत का अरु, गीत ही अंतिम सहारा।।
भाव की गंगा बहाकर, भेद से भिड़ने को तत्पर।
शब्द से संबंध अपना, हैं खड़े दोनो परस्पर।
द्वेष- ईर्ष्या, लोभ- लालच, सब मिटे बस कामना है।
शब्द की बर्छी लिए हूँ, आज इनसे सामना है।
गीत में अविरल प्रवाहित, हो रही समभाव धारा।
मैं पथिक हूँ गीत का अरु, गीत ही अंतिम सहारा।।
द्वेष की जलती चिताएं, देखने की पाल इच्छा।
प्रस्फुटित हो प्रेम उर में, कर रहा प्रति-पल प्रतिक्षा।
साधना सदभाव खातिर, नित्य करता जा रहा हूँ।
गीत मिश्रित प्रीति की मैं, नित्य ही अब गा रहा हूँ।
सुप्त मानवता जगे अब, हो मधुर व्यवहार खारा।
मैं पथिक हूँ गीत का अरु, गीत ही अंतिम सहारा ।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
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