क्या आपने कभी धूप को देखा
क्या आपने कभी धूप को देखा ?
अगर इसे सवाल की तरह आप पढ़ रहे हों तो
उत्तर को ही सवाल बना पूछ सकते हैं
कि उसमें ऐसा क्या है ?
जब – तब धूप को
आती हुई धूप को , जाती हुई धूप को
धूप में रहते हुए धूप को
या छांह में होते हुए धूप देखी हो कभी ।
कमरे से बाहर दिखती धूप
बाहर से कमरे में आती धूप
छाया से पहले की धूप
या छाया के बाद दोबारा आती धूप
खपरैलों के बीच कहीं जगह देख प्रवेश करती धूप
धूप – छांह में जगह बदल बदल कर दिखती धूप
याद कर ही लें अब , देह के ऊपर पड़ती धूप ।
हर ऋतु – रँग में
देखे जाने का इशारा कहाँ करती है वह ?
कभी तो उससे बच जाने को जी करता है
कभी प्रतीक्षा में उसकी बेचैनी बढ़ जाती है ।
जानी – पहिचानी जगहें हों तो वह रोज़ की
दिनचर्या के क्रम में आँखोँ से फ़िसल जाती है
हाँ , जगह नई हो तो उसकी धज
कुछ अलग पाते हैं हम।
अनवरत झड़ी के बाद निकली हुई धूप
या फिर जाड़े के मौसम में आई वह नर्म धूप
जाते हुए भादो और आने वाले क्वांर की
आहट वाली चटख धूप
वहीं ग्रीष्म की तेज़ चुभती हुई धूप।
एक रूप और याद आता है :
कभी बदली के बीच खुश्क दिखाई देती
या अलसाई हुई हल्की उनींदी धूप ।
शरारतन अपना पीला पन फैलाए हुए
पतझड़ में चली आने वाली धूप
हर धूप एक दृष्टि है
हर धूप का अपना स्वर – दृश्य है
हर दृश्य के भीतर ताप है
कितनी धूप , कितनी छटाएँ ।
थकान से घिरी जीवन चर्या में अक्सर हम कहते हैं
कि — “अच्छा नहीं लग रहा !”
कभी सब कुछ किनारे रख , सब कुछ भूल कर
किसी पेड़ की छाया में बैठ धूप के दृश्य देखा करिये
अच्छा लगेगा आपको ।
और धूप को भी कि कम होते ऋतु रँग
और कम होती जीवन – दृष्टि के मध्य
उसकी याद है थोड़े से लोगों को ।
आज जाना कि
विटामिन-डी से भी बड़ा है उसका कद
और यह भी , कि कभी वो भी आपको देखती है
कि आपके देख लेने में उसे आप कितना घर ला पाए ।
जाते हुए अगस्त की एक दोपहरी में
विश्वविद्यालय परिसर में बैठे – बैठे
अकारण जब उससे नज़र मिली
तो आमतौर पर दिख जाने वाली
‘वह’ पहली बार ठीक से दिखी ।
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राजेश गनोदवाले