November 21, 2024

पहुना संग गोठ-बात : श्री मदन शर्मा – जिनके हाथ से ढोलक बोलता है

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अस्मिता और स्वाभिमान के अगस्त अंक में आइये मिलते हैं…
“चंदैनी-गोंदा” महान सांस्कृतिक लोकमंच के एक और सितारे से आज जिनका जन्मदिन भी है।

श्री मदन शर्मा – जिनके हाथ से ढोलक बोलता है।

प्रसिद्ध ढोलक वादक,गीतकार,बॉलीवुड के रजिस्टर्ड फ़िल्म निर्देशक,
मोबा.न.- 9589631946

लता मंगेशकर को पहली बार छत्तीसगढ़ी में गीत गवाने का प्रण पूरा करने वाले चट्टानी हौसले के एक शख्सियत आज हमारे पहुना हैं।
जिन्हें दिल्ली में इंदिरा गांधी ने अपना शॉल ओढ़ाया था।और प्ले ‘रोटी’ में अभिनय से प्रभावित हो भावुक हो गईं थीं। मोहम्मद रफी जी ने जिनकी पीठ थपथपाई थी।उस्ताद अलाउद्दीन खान ने सर पर हाथ रखकर ढोलक के उस्ताद बनने का आशीर्वाद दिया है। जिनके लिये स्व.खुमान साव कहते थे-
“इनके हाथ में ढोलक बजता नहीं बोलता है।”
*आपका संक्षिप्त परिचय*-
जन्म-31अगस्त 1946 करंजा भिलाई।
शिक्षा-बी.ए.,बी.टी.आई.।
पिता-स्व.श्री रेवा राम शर्मा,माता-श्रीमति भागबती शर्मा जी
पुत्र- प्रकाश शर्मा,राकेश शर्मा शैलेष शर्मा
*”आपकी कलायात्रा कब और कैसे शुरू हुई कुछ यादगार पलों में हमें भी शामिल कीजिये ।”*
-मेरे पिता जी काश्तकार थे और संगीत के क्षेत्र में सक्रिय थे।तबला ,ढोलक हार्मोनियम वादन में सिद्धहस्त व अच्छे गायक भी थे।बचपन मे मैंने उनकी नकल करते हुए बजाना सीखा, जब भी घर में कोई मेहमान आते पिताजी कहते-हमारा मदन बहुत अच्छा ढोलक बजाता है। मैं बजाता और उनसे मुझे इनाम में एक आना या दो पैसा मिलता था। धीरे से मैं अरकार वाले महाराज की कीर्तन, रामायण मंडली आदि में बजाने लगा। उस समय ज्यादा नाच पार्टियाँ नहीं थी। उसी समय एक फ़िल्म आई थी “पारसमणि” जिसके गीतों ने मुझमें संगीत के प्रति पागलपन और जुनून पैदा कर दिया। सरस्वती माता ने पहले मेरे हाथ मे ढोलक दिया और फिर मेरा हाथ पकड़कर जैसे मेरा मार्गदर्शन करती रहीं। जिन महान हस्तियों से मुझको मिलवाया उनका आशीर्वाद दिलवाया मेरे लिये सब अद्भुत रहा । वो सब एक सपने जैसा लगता है। हाईस्कूल के बाद ही साल 1965 में मेरी नौकरी 95 रुपये वेतन पर एक शिक्षक के रूप में छुरिया से 14 किमी अंदर के गांव ‘कल्लूबंजारी’ में लग गई। वहाँ आखरा,पाथराटोला,राजिमकुर्रा नाचपार्टी से जुड़ा। जब मैं बीटीआई सतना में टीचर्स ट्रेनिंग कर रहा था। तभी मुझे आदरणीय शामता प्रसाद जी(गुदई महाराज) के साथ सोलो बजाने का मौका मिला। गोविंद नारायण जी के गांव बेला में बनारस की प्रसिद्घ नर्तकियों के कार्यक्रम में ढोलक में संगत किया।1971 में एक बार रागिनी आर्केस्ट्रा की टीम में मैहर गया था। वहां अल्लाउद्दीन खां साहब का घर समीप था।मुझे इसकी जानकारी नही थी उन्होंने मेरा वादन सुनकर मुझे बुलवाया मैं इतने बड़े उस्ताद के सामने जाते डर से कांपने लगा मैंने कोई शास्त्रीय शिक्षा तो ली नही । जाकर उनके पाँव में अपना सिर रख दिया उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा- तुम्हारा “धा” कमजोर है,तुम यदि “धा” पर मेहनत करो तो ढोलक के उस्ताद बन जाओगे। मैने ‘धा’ पर खूब मेहनत की। जबलपुर में गोल्डन आर्केस्ट्रा में उस समय की सुपर हिट चल रही फ़िल्म ‘पाकीजा’ के गीत- ‘इन्ही लोंगो ने… ‘ पर जब मैंने ढोलक बजाया तो मुझे बहुत प्रसिद्धि मिली।लालता चौक सतना में डायमंड शू कम्पनी के मालिक सरदार जी जो गम्भीर व्यक्तित्व के मालिक थे। उन्होंने जब मेरा वादन सुना तो नाचते हुए मेरे पास आये और मुझे 10 रुपये इनाम दिया। भंडारा,नागपुर की प्रसिद्ध शकुंतला नौटंकी पार्टी के साथ ककोड़ी(महाराष्ट्र), गोंदिया, बालाघाट आदि में ढोलक बजाया था। उन दिनों मध्यप्रेदश और नागपुर में ढोलक वादक के रूप में प्रसिद्ध हो गया था।
उसके बाद मेरा ट्रांसफर ढौर हो गया । यहाँ आकर मैं विमल कुमार पाठक के साथ नवरंग कला केन्द्र से जुड़ा। जहां रमेश ठाकुर,मेरे छोटे भाई, आदरणीय बहन तीजनबाई ,शेख हुसैन जी,अमृता बारले जी,स्व.देवदास बंजारे जी आदि साथ में प्रोग्राम देते थे।मैं वहाँ ढोलक बजाता,कॉमेडी करता रीलो नाचता था। उस समय मैं कॉलेज में पढ़ता था। तब सेक्टर 2 भिलाई में नाईट कॉलेज लगता था। उसी समय ही कल्याण कॉलेज की नींव डली, जिसकी सोशल गेदरिंग में मुझे प्रसिद्ध हस्तियों के साथ ढोलक बजाने का मौका मिला और अच्छे ढोलक वादक के रूप में मैं पहचाना जाने लगा। फिर हम रातरानी में दुर्वासा टण्डन,प्रीतम साहू,मालती रजक आदि साथ थे। वहाँ से प्रीतम साहू जी जिन्हें उस समय छत्तीसगढ़ का मोहम्मद रफी कहा जाता था, मुझें अपने साथ सोनहा बिहान की टीम में लेकर गये जहां ममता चंद्राकर,रानी चंद्राकर,शशिगौतम,पुष्पलता कौशिक,मिथिलेश साहू,कृष्णकुमार चौबे,सुरेश चौबे आदि कलाकारों के साथ तीन साल तक रहा। सोनहा बिहान में मैं ढोलक वादक तो था ही मेरे लिखे बहुत सारे गीत भी गाये जाते थे। जिनमें ‘भँवा के मारे रे मोर छैला…’। ‘मया के मुंदरी…,।जर गे मंझनिया के घाम रे,आमा तरी डोला ला उतार दे…। रंग झांझर भौजी के डूमर माला…,।तोर मन्दरी मा घुंनघुना बाजे …,आदि प्रसिद्ध हैं।इसी दौरान दाऊ मंदराजी के रिंगनी रवेली नाचा पार्टी में भी मुझे ढोलक बजाने का मौका मिला।
*चंदैनी-गोंदा के मंच तक आप कैसे पहुँचे?*
सोनहा बिहान के मंच पर मुझे खुमान साव ने देखा था उन्होंने दाऊजी से चर्चा की और मुझे चंदैनी गोंदा के महान मंच से जुड़ने का मौका लगा जहां मुझे रविशंकर शुक्ल,नारायण लाल परमार, लक्ष्मण मस्तूरिहा जैसे लिखने वाले और
भैयालाल हेड़उ,संगीता चौबे दीदी, अनुराग,शैलजा,माया,बसंती,महेश ठाकुर आदि श्रेष्ठ प्रतिभासम्पन्न लोग मिले। दाऊजी ने जब पथरी में चंदैनी-गोंदा को 100 एपिसोड के बाद विसर्जित किया ,खुमान साव जी ने वो बैनर उठाया तो उनके साथ ढोलक बजाने लगा। उस दौरान ताजअली थर्रानी म्यूजिक इंडिया से रिकार्डिंग के लिये आये थे। जिसमें लक्ष्मण मस्तूरिहा,भैयालाल,साधना यादव,कविता वासनिक के ‘पता लेजा रे गाड़ीवाला..’ ,’मया के मारे मया मा मर जाय..’ आदि 32 गानों की रिकार्डिंग हुई। जिनमें मैं गीतकार और ढोलक वादक रहा बाद में मैं फिल्मों में गीतकार लेखन व निर्देशन की जिम्मेदारी संभालने लगा। दहेज दानव जिसमे स्व.झाड़ूराम देवांगन,स्व.मदन निषाद,रामदयाल ने रोल किया।इसके बाद ‘आजा रे मीता’,’हमर गली आना’ ,’भकला’ आदि फिल्में बनाई।
*आपने गीत लिखना कब शुरू किया ?*
सातवीं या आठवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान ही मैंने उन दिनों की एक प्रसिद्ध कव्वाली ‘हमें तो लूट लिया मिल के हुश्नवालों ने..’की पैरोडी लिखी थी। हमें तो लूट लिया मिलके होटल वालों ने,आलू गुंडा वालों ने समोसा वालों ने…,सहपाठी ने शिक्षक से बता दिया शिक्षक ने सबके सामने सुनाने कहा। सुनकर सारे लोग बहुत हँसे। वो मेरा पहला प्रयास था जिसे सराहना मिली। उसके बाद बहुत से गीत लिखे पर संग्रह करके नही रख पाया। किसी दोस्त की डायरी में लिख दिया कभी किसी पेपर में रह गया। एक बार चंदैनी-गोंदा का कार्यक्रम हमारे गांव में हुआ। मंच पर एक गीत चल रहा था मुझे उसकी स्वरलहरी में झूमते देखकर खुमान साव जी ने पूछा- ‘किसका गीत है..?’
मैने कहा पता नही पर गीत बहुत अच्छा है।
उन्होंने कहा- ये तुम्हारा गीत है तुमने मेरी डायरी में लिखा था देखो।
तब मुझे पता चला कि मेरा लिखा गीत है फिर बाद में वही गीत मैंने अनुराधा पौडवाल से भकला में गवाया
*मोहम्मद रफी जी से मुलाकात और लता मंगेशकर जी से छत्तीसगढ़ी में गीत गवाने के अपने भगीरथ प्रयासों के विषय मे कुछ बताइये?*
-दल्लीराजहरा में मोहम्मदरफी जी कार्यक्रम था। मैने जब उनके गाने ‘वो चले झटक के मेरी आरजू मिटा के..’ के लिये बजाया तो गीत समाप्ति पर वे पास आकर पीठ थपथपाये और बहुत खुश होते हुये शाबासी दी और कहा मेरे लिये एक और बार तुम बजाना। दूसरा गाना था -‘आने से उसके आये बहार…..’ इस बार भी पीठ थपथपाते उन्होंने कहा था-“बहुत प्यारा हाथ है,तुम्हारा ‘मास्टर सत्तार’ जैसा ” ये मेरे लिये बहुत बड़ी बात है क्योंकि मैं मास्टर सत्तार को अपना गुरु मानता हूँ ।
मैं लता दीदी को सरस्वती की पुत्री और देवी मानता हूँ।जब खैरागढ़ विवि ने लताजी को ‘डी.लिट’ की उपाधि प्रदान की थी तब मैं मोहम्मद रफी जी के साथ ढोलक बजा चुका था । मैंने तत्कालीन कुलपति अरूणकुमार सेन जी से निवेदन किया कि मुझे लता जी के साथ बजाना है। उन्होंने कहा जरूर मौका देंगे पर वहां लताजी ने गीत ही नही गाया तो मैं निराश हो गया और कसम ली कि मैं यदि सरस्वतीपुत्र हूँ, तो लता दीदी से छगढ़ी में अवश्य गीत गवाऊंगा। बरसों मेहनत की पर उन्होंने प्रेमगीत गाना बन्द कर दिया था। हर बार वे मना कर देती थीं। फ़िल्म भकला के स्क्रिप्ट राइटर प्रेम साइमन की सलाह पर मैंने एक कालजयी बिदाई गीत लिखा और उषा दीदीजी की मदद से अंततः बाइस फरवरी 2005 को हमें सफलता मिली। फ़िल्म “भकला” के लिये लता दीदी और उषा दीदी ने ‘छूट जाही अँगना अटारी…” गाया और उनके साक्षात दिव्य स्वरूप को मैंने माथ नवाया । मेरे पीछे-पीछे दुहराते हुए वे गाती जातीं और इस प्रकार यह ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल हो सकी। इसी फिल्म में अनुराधा पौडवाल,साधना सरगम,अनन्दिता पाल,रामशंकर,आदि मुंबईया गायकों ने भी आवाज़ दी है।
*पुरस्कारों/सम्मानों की पारदर्शिता इन दिनों संदिग्ध है।आपके क्या विचार हैं?*
-सम्मान मांगना नही पड़ता। सम्मान का महत्व तभी है जब वह उसके सच्चे हकदारों को मिले। छत्तीसगढ़ में प्रतिभाओं की कोई कमी नही है। यहाँ की माटी में लक्ष्मण मस्तुरिया जैसा हीरा जन्मा है। जिनके लिखे शब्द-शब्द में साहित्य है। खुमान साव जैसा प्रभाव छगढ़ी संगीत में पैदा करने वाला दुबारा कभी नही जन्मेगा। शिव कुमार दीपक जैसे अद्भुत अभिनेता मौजूद हैं।
आश्चर्य कि पुरस्कारों के चयन समिति में बैठने वालों को इनकी प्रतिभा क्यों नही दिखती। चापलूसी,सेटिंग,मक्कारी,झूठे प्रमाणपत्र अब सम्मान के आधार बन गए हैं।
मैं ऐसे सम्मान कभी नही चाहता। मुझे 22-23 बड़े सम्मान मिले हैं।जिनमे लता मंगेशकर जी से छत्तीसगढ़ी गीत गवाने के बाद तत्कालीन राज्यपाल के एल सेठ जी द्वारा सम्मान,डोंगरगढ़ के विधायक के लिये बनाई फ़िल्म दहेज़दानव के लिये मोतीलाल वोरा जी द्वारा सम्मान ,छतीसगढ़ फ़िल्म सोसायटी से दो तीन बार लाइफ़ टाइम अचीवमेंट सम्मान तथा शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती जी से मिला धरतीपुत्र सम्मान शामिल हैं। मुझे जीवन भर मिले महान हस्तियों का आशीर्वाद और सानिध्य मेरे लिये श्रेष्ठ पुरस्कार है।
*आप शासन से क्या उम्मीद रखते हैं?*
मैं,कोई उम्मीद नही रखता। बल्कि एक निवेदन जरूर करूंगा कि स्कूलों के दाल भात सेंटर को बंद करें। 2 रुपये में चावल देकर आपने उनके पेट का इंतजाम कर ही दिया है स्कूल को शिक्षा का ।मंदिर ही रहने दें।बच्चों की बेसिक शिक्षा पर ध्यान दें।
शिक्षकों से शैक्षिणक कार्य ही करवाएं उन्हें “शिक्षाकर्मी” कहकर उनसे बेगारी /मजदूरी न करायें। उन्हें अपने अधीन रखें ,पंचायतों के सुपुर्द करके उन्हें दूसरे उलझनों में न उलझाएं।
*नई पीढ़ी के कलाकारों के लिये आपका सन्देश..?*
बॉलीवुड और फिल्मी दुनिया के चक्कर मे न पड़ें। छतीसगढ़ के लोकवाद्य और लोकताल को समझें। झपताल और दीपचंदी ताल भातखण्डे जी ने यहीं से लिया है।गीत-‘दिया के बाती ह कहिथे..’ में झप ताल उपयोग हुआ है। एक ही गाने में तीन ताल कर्मा ताल,दादरा ताल,भाठा कर्मा ताल का प्रयोग मैंने ही किया है।
गीत’अइसन भोले बाबा ल कइसे मनाबे ओ गौरा..में तथा ‘मोर हिरदे के पिंजरा मा मोर मन के चिरइया बोले, डेरा दे दे सँगवारी…’ गीत में दादरा एकताल और कर्मा ताल का प्रयोग हुआ है।
गीतकार परमानन्द यदु कहते थे कि-प्राचीन शास्त्रीय गायकों बैजू बावरा आदि छतीसगढ़ के जंगलों से ही संगीत पाते थे। 49 ताल में से 8 ताल छत्तीसगढ़ का बताया जाता है।गढ़ा ताल यहाँ 8 प्रकार का कर्मा ताल है।नई पीढ़ी हमारी लोक संस्कृति की विशेषताओं से परिचित होकर समृद्घ बने।
*छतीसगढ़ी फ़िल्मों के बारे में बॉलीवुड की क्या राय है?हमारी फिल्में अपने राज्य के दर्शकों तक को भी क्यों नही बाँध पाती हैं?*
– मेरे मत में किसी फ़िल्म को देखने पहले दो दिन जो दर्शक टॉकीज आते हैं वही असली विज्ञापन हैं। वे सन्तुष्ट होकर जब बाहर जाते हैं तभी और दर्शकों को फ़िल्म खींच पाती है।
बॉलीवुड की राय के विषय में सूरज बड़जात्या जी ने एक बार मुझे कहा था, वह बताना चाहूंगा – ‘आपके छत्तीसगढ़ में तो घर-घर में एक डायरेक्टर है।खूब फिल्में बनती हैं।बॉलीवुड की नकल के कारण न वे छत्तीसगढ़ीपन ही बचा पाते, न एक्सप्रेशन ,डायलॉग डिलीवरी,कलाकार पर ध्यान पर देते हैं,न होमवर्क करते हैं, सवा दो घँटे की फ़िल्म में कहानी से अनमैच गाने ठूँस देते हैं। यदि आप अपनी समृद्ध संस्कृति दिखायें और अपनी माटी से कहानी उठायें तो बॉलीवुड आपकी छत्तीसगढ़ी फिल्मों की कॉपी करेगा।
एक समय यू.पी.,भोजपुरी फिल्में हिंदी फिल्मों को टक्कर देकर भारी पड़ती थीं पर जब से वे बॉलीवुड की नक़ल करने लगे उन्हें वितरक तक नही मिल पाता।
*आपकी आगामी योजनायें क्या हैं?*
-कुछ आर्ट फिल्मों की योजना है। तैयारी भी है, स्पॉन्सर्स का इंतजार है। ईश्वर का निर्देश मिलते ही काम शुरू हो जायेगा।
आपकी ऊर्जा और सक्रियता निरन्तर बनी रहे आपके निर्देशन में बनी छालीवुड फिल्में नये कीर्तिमान स्थापित करें।
जन्मदिन की अशेष, अनन्त शुभकामनाओं सहित प्रणाम।
🙏🏻💐
मेनका वर्मा

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