कलम बनी आगोश
वक्त बदल जाता बहुत, सब दिन नहीं समान।
शेष समय जरूर करो, तुम पूरे अरमान।
मुखिया मुख सो चाहिए, तुलसी का उपदेश।
आजीवन चलता नहीं, मुखिया रूपी भेष।।
काज निभाता जो सदा, पाए जब विश्राम।
किसी दौर आभास हो, खोया सा बेकाम।।
जीवन सबक मिला सही, बनती खुद से राह।
कमियों में कैसे करें, सबकी पूरी चाह ।।
कर्म उचित करते रहो, चाहत में ना चूक।
विवेक बोध साथ रखो, छोड़ कूपमंडूक।।
घर का जोगी जोगड़ा, कथन बहुत है सिद्ध।
ये सोच चलन दूर हो, हाथ जोड़ करबद्ध।।
प्रतिफल की इच्छा तजो, बाधा करना दूर।
अपनों के ही सामने, बन जाओ मशहूर ।।
खुशियों के पल जब मिले, लो पूरा आनंद।
सुकून भी यदि साथ है, ऐसे पल हों चंद।।
दीर्घ लघु बनती कथा, सबका ही तो अंत।
लिखना राही निज कथा, बतला गए महंत।।
गौर सहित सबकी गुनो, खूब लगाकर ध्यान।
मनुज स्वभाव से मिले, बहुत मान अपमान।।
मुखिया मुख भी एक दिन, हो जाता है मौन।
वक्त तकाजा ही रहे, आप कहें हम कौन।।
उगता सूरज तो लगे, सबको ही गतिशील।
डूबा जहाज परखता, ठोके तम की कील।।
कभी एक दिन जो भला, बन जाता बेकार।
जग सागर में पल रहा, विचित्र सोच विचार।।
संकट में सब अनसुना, जितना था प्रयास।
बहुधा बिन सहयोग ही, करते हैं उपहास।।
जीवन पथ के दांव जब, थककर होते चूर।
जंग ढंग के पांव पर, तन से मन भी दूर।।
भगवत कृपा से मिला, चौथेपन का शोर।
जैसे शतरंज चाल से, हिल जाती है डोर।।
यादें अनेक पल रही, रहना है खामोश।
वक्त मिला भरपूर कब, कलम बनी आगोश।।
नया जमाना ला रहा, नई नई तरकीब।
गूढ़ तिकड़मी चाल से, चलते रहे नसीब।।
चंदन बने कर्म तभी, महके जब परिवार।
तनिक परवाह से बढ़े, अपनों का आधार।।
निज पूत और सोच को, सुखद मानते लोग।
यश उन्नति मार्ग कहे, सीधे रहें सब योग।।
भिन्न जन समुदाय मध्य, होवे नैय्या पार।
जीवन धर्म सिखा रहा, विजय कर्म का सार।।
बुद्धि रिद्धि सिद्धि मन से, मांगो महिमा खास।
पूजन नमन गणेश से, पूरी सबकी आस।।
(रचयिता:विजय गुप्ता, दुर्ग 31अगस्त 22,गणेश चतुर्थी)