November 22, 2024

सारंगढ़ का “अंग्रेज़ का मंदिर” : यहां दफ़न है छत्तीसगढ में कदम रखने वाला पहला अंग्रेज़

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डाॅ परिवेश मिश्रा
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शनिवार 12 सितम्बर सन् 1778 की सुबह।

उस समय सारंगढ़ में राजा विश्वनाथ सिंह जी का राज था। राजपरिवार बादल महल में निवास करता था। उस महल के अब अवशेष बचे हैं जो बाद में बने गिरिविलास महल के परिसर में हैं।

सारंगढ़ कम आबादी की एक छोटी बस्ती थी। जितनी थी मिट्टी, चूने और पत्थरों की दीवारों से बने “गढ़” के भीतर थी। आबादी में राजगोंड और गोंड के अलावा बिंझवार, भैना और गांड़ा परिवारों के साथ राऊत (यादव/रावत) परिवार प्रमुख थे जो राज्य की सैन्य शक्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा थे। कुछ मुस्लिम परिवार थे जो चूड़ियों और मनिहारी सामान का व्यवसाय करते थे। इनके स्थायी खरीददार गिनेचुने रजवाड़ों में ही थे और ये आसपास के इलाके में आना जाना करते रहते थे। किले के चारों ओर सुरक्षात्मक घेरे के रूप में बहने वाला नाला साल के इस समय हमेशा की तरह पूरा भरा था।

आम तौर पर शांत रहने वाली “गढ़ी” में हर व्यक्ति उस सुबह घर के बाहर था और सब की कौतूहल भरी निगाहें किले के दरवाजे पर थीं। उस दिन सारंगढ़ में पहली बार एक अंग्रेज़ दिखायी दिया था। उससे पहले किसी अंग्रेज़ के छत्तीसगढ पहुंचने के दर्ज़ इतिहास की जानकारी मुझे नहीं है। घूल-घूसरित फौजी वर्दी में धोड़े पर सवार ईस्ट इंडिया कम्पनी का जो अधिकारी किले में प्रवेश की अनुमति की प्रतीक्षा में खड़ा था उसका नाम था रॉर्बट फ़ार्क्वार।

लगभग माह भर पहले कलकत्ता से ईस्ट इंडिया कम्पनी के कुछ सैनिक नुमा अधिकारी ‘गवर्नर जनरल ऑफ बंगाल’ वॉरेन हेस्टिंग्स का राजा साहब के नाम लिखा एक पत्र ले कर आए थे। हेस्टिंग्स ने लिखा था कि उनके अधिकारियों का एक दल, जिसे ‘ऐम्बेसी’ के रूप में संबोधित किया गया था, मराठा राजा रधुजी भोंसले से मिलने नागपुर जाने के लिए कलकत्ता से रवाना होने वाला है। हेस्टिंग्स ने पत्र में पूर्व-सूचना देते हुए दल के सारंगढ़ राजा साहब से भेंट करते हुए राज्य से गुजरने की अनुमति मांगी थी। राजा साहब ने अनुमति प्रदान कर दी थी।

किन्तु उस दिन राजा विश्वनाथ सिंह जी को प्रतीक्षा थी एलेक्जेंडर ईलियट की। हेस्टिंग्स ने जो पत्र भेजा था उसमें दल के मुखिया का यही नाम बताया गया था। रॉर्बट फ़ार्क्वार से उन्हे पता चला कि ईलिएट की उसी सुबह मृत्यु हो गयी थी और पूर्व-निर्धारित प्रकिया के तहत दूसरे नम्बर के अधिकारी फ़ार्क्वार ने तत्काल एम्बैसी की कमान सम्भाल ली थी। उस समय रॉबर्ट फ़ार्क्वार स्वयं इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनकी किस्मत में भी एक महिने के बाद छत्तीसगढ में ही दफ़न होना लिखा था। किन्तु फ़ार्क्वार की कहानी कभी और।

‘ऐम्बेसी’ के सारंगढ़ राज्य की सीमा में प्रवेश की सूचना खबरियों ने राजा साहब को छह सितम्बर को दे दी थी। खबरियों ने यह भी बताया था कि अंग्रेजों के दल का मुखिया तथा कुछ अन्य लोग बुखार से ग्रस्त हैं और उन्हे कुछ दिनों के लिए पड़ाव करना होगा। राजा साहब ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे मौके पर पंहुचकर मदद करें। मदद के रूप में पड़ाव के लिए उपयुक्त स्थान का चयन सबसे महत्वपूर्ण था।

सारंगढ़ से सरायपाली का मार्ग आज के गुमर्डा वन्यप्राणि अभ्यारण्य को चीरता हुआ निकलता है। इस मार्ग में सारंगढ़ से 12 कि.मी. की दूरी पर सालर गांव है। घने वन क्षेत्र का पानी समेट कर लात नदी इस गांव के किनारे से हो कर महानदी की ओर आगे बढ़ती है। सन् 1778 के सितम्बर माह के प्रारम्भ में इस नदी में बहुत पानी था। वन उन दिनों बहुत घने थे और सभी प्रकार के हिंसक तथाअन्य वन्य प्राणियों से भरे पूरे थे। नदी के तट पर सालर के उस पार सेमरा गांव भी तब तक अस्तित्व में आ चुका था। इन दोनों गांवों के बीच नदी में एक टापू है। ईलियट के दल के पड़ाव के लिए इसी स्थल को सुरक्षित माना गया।

किन्तु पांच दिन के तेज बुखार के बाद दल के मुखिया एलेक्जेंडर ईलियट का निधन हो गया। मृत्यु के समय ईलियट की उम्र थी मात्र तेईस वर्ष।

वॉरेन हेस्टिंग्स के अलावा चंद मुट्ठी भर लोग ही थे जिन्हे इस एम्बैसी के महत्व और इसके सारंगढ़ राज तक पंहुचने के अंतर्राष्ट्रीय कारणों की जानकारी थी।
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ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सन् 1772 में कलकत्ता में वॉरेन हेस्टिंग्स को नियुक्त कर दिया था। बम्बई (मुम्बई) और मद्रास (चेन्नई) में भी गवर्नरों ने काम संभाल लिया था। किन्तु भू-मार्ग के माध्यम से अंग्रेज़ों के इन तीनों मुख्यालयों के बीच सम्पर्क नही था। श्रीलंका का चक्कर लगा कर समुद्र से पंहुचने का विकल्प नही था। पदभार सम्भालने के बाद कलकत्ता और बम्बई को जोड़ने वाला एक सुरक्षित गलियारा प्राप्त करना हेस्टिंग्स की सर्वोच्च प्राथमिकता थी। (यह वही गलियारा था जिस पर आगे चल कर कलकत्ता और बम्बई के बीच “द ग्रेट ईस्टर्न रोड” बनी और बम्बई हावड़ा रेल लाईन का निर्माण हुआ)

हेस्टिंग्स का दौर शुरू होते तक कलकत्ता और बम्बई के बीच के भारत के पूरे भूभाग पर मराठे हावी हो चुके थे। इधर एक अंतर्राष्ट्रीय घटना ने गलियारा प्राप्त करने के लिए हेस्टिंग्स पर ब्रिटिश आकाओं का दबाव अचानक बहुत बढ़ा दिया। अमेरिका तब तक ब्रिटेन के अधीन था। सन् 1775 में वहां के लोगों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक बड़ा युद्ध शुरू कर दिया था जिसे आज भी इतिहास में “अमेरिकन वाॅर ऑफ इंडिपेन्डेन्स” के नाम से याद किया जाता है। एक तरफ ब्रिटेन था तो दूसरी ओर उसके तेरह ऐसे उपनिवेश जिन्होने अपने आप को ब्रिटेन से स्वतंत्र घोषित कर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की स्थापना की घोषणा कर दी थी।

कलकत्ता में बैठे अंग्रेज़ों के लिए दूर अमेरिका में चलने वाला युद्ध इसलिए डराने वाला था क्योंकि उस युद्ध में अंग्रेज़ों के विरोधियों को मदद कर रहा था फ्रांस और फ्रांस की अच्छी खासी मौजूदगी और प्रभाव भारत में भी था। भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की जड़ें तब तक मजबूत नहीं हो पायी थीं। अमेरिका की तरह यदि फ्रांस भारत में भी ब्रिटेन विरोधियों को मदद दे कर प्रभावी प्रतिरोध खड़ा करने में सफल हो जाता तो अंग्रेज़ों का यहां टिकना मुश्किल था। इस संभावना ने अंग्रेज़ों की नींद उड़ा दी थी।

दक्षिण में टीपू सुल्तान और उत्तर में सिंधिया फ्रांसीसियों के करीब आ चुके थे। अब गलियारा प्राप्त करने के साथ साथ हेस्टिंग्स के लिए आवश्यक हो गया था कि वह फ्रांस से मिलने वाली संभावित चुनौती का सामना करने के लिए मध्य-भाग में प्रभावशाली नागपुर के भोंसले जैसे मराठों के साथ संधि की संभावना तलाशे। भोंसले के पास फ्रांसीसी पंहुचें उससे पहले हेस्टिंग्स को उनके पास पंहुचना था।

यही वो लक्ष्य था जिसे प्राप्त करने के लिए हेस्टिंग्स ने इंगलैन्ड में उपलब्ध सबसे योग्य युवाओं में से एक एलेक्जेंडर ईलियट को कलकत्ता बुलाया था।

इंगलैन्ड से भारत आने के बाद ईलियट को हेस्टिंग्स के सेक्रेटरी के पद का आवरण दे कर एक माह की कठोर ट्रेनिंग दी गयी थी और मिशन के लिए तैयार किया गया था। वाॅरेन हेस्टिंग्स ने हरकारों के हाथों भेजी जाने वाली डाक की व्यवस्था को आम जनता के लिए खोल दिया था (इसीलिए हेस्टिंग्स को भारतीय डाक सेवा या ‘इंडिया-पोस्ट’ का जनक भी कहा जाता है)। ईलियट की ‘एम्बैसी’ का सार्वजनिक रूप से घोषित लक्ष्य अंग्रेज़ों के लिए इसी मकसद से गलियारा प्राप्त करना था – “पोस्टल काॅरीडोर”।
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ईलियट की ‘एम्बैसी’ को 20 जून 1778 के दिन चार सौ भारतीय घुड़सवार सैनिकों के साथ कलकत्ता से रवाना किया गया था। दल में ईलियट के सहायक के रूप में राॅबर्ट फार्क़्वार, सैनिकों की टुकड़ी के मुखिया के रूप में केप्टन विलियम कैम्पबेल समेत कुल पांच अंग्रेज़ अधिकारी थे। मूसलाधार वर्षा में यह दल कटक और वहां से सोनपुर होते हुए महानदी के किनारे किनारे आगे बढ़़ा। मौसम की मार और यात्रा की थकान ने दल के सभी सदस्यों के हाल बुरे कर दिये थे। रास्ते में ईलियट की तबियत बिगड़ने की सूचना हेस्टिंग्स तक पंहुचा दी गयी थी और वहां से वैकल्पिक व्यवस्था के आदेश भी आ चुके थे।

इन्ही आदेशों के परिपालन की कड़ी में एम्बैसी के नए मुखिया राॅबर्ट फ़ार्क्वार सारंगढ़ राजा से मिलने पंहुचे थे। अपने साथी एलेक्ज़ेंडर ईलियट के मृत शरीर को सैनिकों की सुपुर्दगी में छोड़ कर वे राजा विश्वनाथ सिंह जी के पास उसे उनके राज्य की सीमा में दफ़नाने की अनुमति लेने आए थे। राजा साहब ने अनुमति दी और सारंगढ़ राज्य में कदम रखने वाला पहला अंग्रेज सदा के लिए यहां का हो गया।
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ईलियट स्काॅटलैन्ड के एक बहुत प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य थे। उनके दादा को ‘मिन्टो के बैरन’ की पुश्तैनी उपाधि दी गयी थी। आगे चलकर एलेक्ज़ेंडर ईलियट के छोटे भाई भारत में लाॅर्ड मिन्टो प्रथम के नाम से सन् 1807 से 1812 तक भारत के गवर्नर जनरल रहे। लाॅर्ड मिन्टो प्रथम के पर-पोते सर गिल्बर्ट जाॅन ईलियट भी आगे चल कर सन् 1905 से 1910 के बीच भारत के वाॅईसराय और गवर्नर जनरल बने। वे लाॅर्ड मिन्टो द्वितीय कहलाए। ( नयी दिल्ली के “मिन्टो ब्रिज” वाले।)
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ईलियट की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद वाॅरेन हेस्टिंग्स का भेजा एक और दल सारंगढ़ पंहुचा। इस दल ने हेस्टिंग्स की ओर से धन्यवाद ज्ञापन के रूप में राजा साहब को एक हाथी और ख़िलअत के साथ भेंट दीं। जिस स्थान पर ईलियट को दफ़नाया गया था वहां हेस्टिंग्स के लोगों ने स्थानीय कारीगरों की सहायता से एक कब्रगाह का निर्माण किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा अपने किसी मुलाजिम के लिए भारत में निर्मित की गयी यह पहली कब्रगाह है। हेस्टिंग्स ने एलेक्ज़ेंडर ईलियट के बारे में विस्तृत समाधि लेख के साथ एक तराशा हुआ बड़ा पत्थर भी भेजा था जिसे कब्रगाह की दीवार पर स्थापित किया गया।

स्थानीय लोगों ने कब्र के उपर हुए निर्माण को देखा और उसे ‘अंग्रेज का मंदिर’ नाम दे दिया। इस नाम का प्रभाव यह हुआ कि सवा दो सौ वर्ष से अधिक समय बीत गया पर कब्रगाह सलामत है। हालांकि एक कारण यह भी रहा कि 1947 तक अंग्रेज सरकार इस मकबरे की देखरेख के लिए समय समय पर आर्थिक सहायता भी भेजती रही। सारंगढ़ आने वाले सभी महत्वपूर्ण अंग्रेज़ों ने यहां पंहुचकर फूल चढ़ाए।

नियुक्ति अवधि पूरी होने पर वापस इंगलैंड वापस जाते समय वाॅरेन हेस्टिंग्स ने जहाज में लिखी अपनी डायरी में एलेक्ज़ेंडर ईलियट और उसके मिशन के बारे में विस्तार से लिखा। एक बेहद प्रतिभाशाली युवा की इतनी कम उम्र में मृत्यु हो जाने के लिए वे अपने आप को भी दोषी मानते रहे।
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गिरिविलास पैलेस
सारंगढ 496445 छत्तीसगढ

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