5 सितंबर : शिक्षक दिवस पर चंद बातें
35 साल तक एक विश्वविद्यालय में शिक्षक रहा हूँ। इस दौरान कई खट्टी- मीठी स्मृतियों से गुजरना पड़ा। मैं अपने विद्यार्थियों को क्या और कितना सिखा पाया, यह मुझे नहीं मालूम, पर पढ़ाना मेरे लिए खुद सीखने से कम न था। कुछ बातें आज शिक्षक दिवस पर दिमाग में आ रही हैं, वे मैं आपसे शेयर करता हूँ :
(1) 30 साल की उम्र में (1979) कलकत्ता विश्वविद्यालय में आ गया था, तब मासिक वेतन मात्र 1075/- रुपए के आसपास था! अभाव था, पर मन भाव से परिपूर्ण था। ज्यादा सुख सुला देता है। जागरूकता के लिए जीवन में थोड़ा दुख का होना जरूरी है !
(2) आचार्य शुक्ल ने भक्त कवियों के संबंध में लिखते हुए दो अवस्थाएं बताई हैं : सिद्धावस्था और साधनावस्था। शिक्षक भी दो तरह के हो सकते हैं : सिद्धावस्था के शिक्षक और साधनावस्था के शिक्षक।
सिद्धावस्था के शिक्षक परिपूर्ण होते हैं, उन्हें और अधिक पढ़ने- सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती। साधनावस्था के शिक्षक सारा ज्ञान उपलब्ध करके बैठे नहीं होते। वे हमेशा खोज में होते हैं– इतिहास की खोज में, अपनी भाषा के वैभव की खोज में, यथार्थ की खोज में। वे सब कुछ सीख चुके नहीं होते, पीएचडी के बाद भी अनुसंधानरत रहते हैं। पढ़ते- लिखते रहते हैं। अच्छी शिक्षा देने के लिए अनुसंधान की अपनी प्रवृत्ति को हमेशा जिंदा रखना जरूरी है।
(3) आइंस्टीन की एक बात मुझे प्रेरणा देती है। उन्होंने कहा था कि एक मूर्ख और एक बुद्धिमान में फर्क यह है कि मूर्ख से 100 प्रश्न पूछो तो वह 101 प्रश्नों के उत्तर देगा। बुद्धिमान किसी एक प्रश्न का उत्तर देकर कहेगा कि अब तक की जानकारी के आधार पर यह उत्तर है। यदि इस संबंध में कोई नई जानकारी मिली तो बताई जाएगी।
हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि अधिकांश शिक्षक और बुद्धिजीवी सोचते हैं कि ज्ञान उनके पास आकर ठहर गया है और वे परिपूर्ण हैं।
(4) शिक्षक का काम विद्यार्थी को डराए रखना नहीं है, अधिकाधिक निर्भय बनाना है। विद्यार्थियों को अपने खूंटे से बांधे रखना या बंधुआ बनाकर रखना नहीं है, बल्कि बौद्धिक जगत में उन्हें स्वाधीन छोड़ देना है। उन्हें सारे प्रश्नों का उत्तर देना सही शिक्षा नहीं है, उनहें जिज्ञासु बनाना और खुद उत्तर ढूढने में समर्थ बनाना सही शिक्षा है।
(5) मैं अपनी एक तकलीफ शेयर करना चाहता हूँ। एक खास दशा को लेकर शिक्षा की सर्वोच्च जगह पर भी मैं हमेशा घुटन का अनुभव करता रहा हूँ। आरंभिक सालों से ही विश्वविद्यालय में हिंदी के दसियों शोधार्थियों को मुझसे छिप कर मिलना पड़ता था। वे मुझसे अपने शोध से संबंधित परामर्श छिपकर करते थे ताकि उनके गाइड को पता न चले। शोधार्थी के गाइड को यदि हमारी मुलाकातों की खबर लग जाती तो शोधार्थी पर शामत आ जाती। वे डरते थे तो मुझे ग्लानि होती थी कि मैं हिंदी की कैसी दुनिया में हूँ!
प्रायः तमाम विश्वविद्यालयों में एम.ए. की कक्षा से ही ‘मेरा विद्यार्थी- उसका विद्यार्थी’ का विभाजन होने लगता है। यह विद्वत्ता और शिक्षक वृत्ति पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है। यह स्वाभाविक है कि किसी विद्यार्थी को कोई खास शिक्षक पसंद हो या जिसके पास क्षमता है, संयोग से वह पसंद हो। पर इससे वह विद्यार्थी किसी की जागीर नहीं बन जाता। विद्यार्थियों को जीवन- समुद्र में उतरना होता है, पर उनको नदी से निकाल कर तालाब में डाल दिया जाता है!
(6) साहित्य एक पागलपन है, थोड़ा- बहुत हरेक में होना चाहिए। मैं हर महीने अपने वेतन का एक अंश साहित्यिक आयोजनों, पत्रिकाएँ खरीदने और ऐसे ही दूसरे कामों में खर्च कर देता था। जब ‘समकालीन सृजन’ लघु पत्रिका निकलनी शुरू हुई, ज्यादा खर्च होने लगा। उस दौर में कई नगरों के अनगिनत लेखक-शिक्षक साहित्यिक कार्यों के लिए अपने पास से खर्च करते रहे हैं। मैंने हमेशा सोचा है कि जो हिंदी मुझे इतना वेतन दे रही है, उसपर मेरा पूरा हक कभी नहीं है। सिर्फ क्लास लेना, परीक्षा लेना कर्तव्य की इतिश्री नहीं है।
पहले के जमाने में कई लोग इस तरह सोचते थे और आर्थिक सहयोग के लिए सामने आ जाते थे। फिर आमदनी जितनी बढ़ती गई, सैलरी डेढ़- दो लाख तक पहुंच गई तो गांठ से रुपए निकालना, दो- चार पत्रिकाएँ तक खरीदकर पढ़ना भारी पड़ता गया! यह है हिन्दी का भाग्य!!
शायद यह कभी समझ में आ जाए कि मछली को बचाना है तो पानी को बचाना होगा।
(7) एक बात प्रचलित है, ‘सा विद्या या विमुक्तये’! इसका क्या अर्थ है ? आखिर विद्या किन चीजों से मुक्त करती है? विद्या का काम व्यक्ति को उसके अहंकार, सिद्धावस्था के भाव, अशालीनता, द्वेष और घृणा से मुक्त करना है। पढ़-लिखकर भी कोई कठमुल्ला रह जाए, अशालीन हो और अपशब्दों का प्रयोग करने वाला हो और द्वेष- घृणा से भरा हो तो उसे अशिक्षित मानने में कोई हर्ज नहीं है।
ऊंची डिग्री होने भर का अर्थ शिक्षित होना नहीं है!
(8) धर्म पर इतना जोर शायद ही पहले कभी रहा हो। ऊपर से यह सभ्यता का शिखर है! अब हर तरफ कितनी रोशनी है! फिर भी क्या विद्या मनुष्य का मन थोड़ा भी बड़ा बना पा रही है? इतना अशालीन व्यवहार, इतने अपशब्द पहले कभी न थे। टीवी की बहसों में इतना गंदा शोर कभी नहीं था। आज यदि लोगों का मन किसी भी युग से ज्यादा कलुषित है, यदि आज शिक्षा हमें आम लोगों से विच्छिन्न करती है और यदि आज बहुत ज्यादा खुदगर्जी है तो मन में प्रश्न उठना चाहिए– क्या यह सब हमारी शिक्षा की विफलता है? क्या आज विद्या का अर्थ चालाकी सीखना है, व्यवसाय है?
(9) शिक्षक दिवस विद्यार्थियों से विशेष अभिवादन और उपहार लेने का दिन नहीं है। यह शिक्षक के आत्मचिंतन का दिन है। यह संकल्प का दिन है कि हम अपने विद्यार्थियों को आजाद रखेंगे, उन्हें तालाब नहीं बल्कि नदी का प्रवाह देंगे, मुक्त आकाश देंगे।
(10) इस युग में सबसे खतरनाक जिज्ञासा का मर जाना है ! यदि हमने जिज्ञासा बचा ली तो दुनिया एक दिन प्रेम की मंजिल तक पहुंच जाएगी!!
–शंभुनाथ