बूट पॉलिश : मैं भीख नहीं माँगूँगा
बच्चे देश के भविष्य होते हैं। किसी देश के वर्तमान और भविष्य का आकलन वहां के बच्चों की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। बच्चों को पर्याप्त पोषण, शिक्षा, आवास, प्रेम और संरक्षण न मिले तो उनके साथ समाज का भविष्य भी प्रश्नांकित हो जाता है।बावजूद इसके सभ्यता के विकास में ऐसा कोई दौर नहीं रहा जब दुनिया के तमाम बच्चों को उनके उम्र के अनुसार उचित परिवेश और सुविधा मिली हो।कुछ प्रतिशत बच्चों को छोड़कर अधिकांश विपरीत माहौल में जीते रहे हैं। जिन हाथों में किताबें होनी चाहिए थी वे काम करते रहे, भीख मांगते रहे!उपयुक्त सामाजिक वातावरण न मिलने पर चोरी, नशाखोरी जैसे विचलन भी दिखाई देते हैं।उम्र के अनुसार पोषण तो दूर कहीं दो जून रोटी भी मयस्सर नहीं होती। राजेश जोशी की एक कविता है ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’।कवि ने इसे “हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति” कहा है। कवि की सम्वेदना जहां उनके काम पर जाने से(यानी स्कूल न जा पाने की विडम्बना)इतना व्यथित है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों का भूखा रहना, कितनी बड़ी त्रासदी है!
हमारे देश की स्थिति भी इससे पृथक नहीं रही है। आज भी तमाम कानूनों और प्रयासों के बावजूद भीख मांगते, काम करते,कचड़ा बीनते बच्चे सहजता से दिखाई देते हैं। जाहिर है व्यवस्था के क्रियान्वयन और समाज में ही कहीं न कहीं खोट है। इसे केवल माता-पिता के लापरवाही तक सीमित नहीं किया जा सकता। वह भी है, मगर वह भी इसी विचलित व्यवस्था की ही उपज है। भूखमरी, बेरोजगारी, आवासहीनता व्यक्तिगत विचलन से कहीं अधिक व्यवस्थागत विचलन का परिणाम हैं। ऐसी व्यवस्था जिसमे सब बच्चे हँसते, खेलते स्कूल जाते दिखे अभी एक सपना ही है।
गरीबी, भुखमरी अच्छे-अच्छों को तोड़ देती है तो अबोध बच्चों का अनुमान लगाया जा सकता है। आत्मसम्मान मनुष्य का नैसर्गिक गुण है। हर व्यक्ति जीवन में न्यूनतम सम्मान का आकांक्षी होता है।आत्महीनता एक बड़ा नैतिक विचलन है। मनुष्य ससम्मान रोटी चाहता है, इसलिए श्रम करता है। ज़लील होकर पेट भरना सामान्य परिस्थिति में शायद ही कोई पसन्द करे। मगर अक्षमता, लाचारी आदमी से क्या कुछ न कराती है!
फ़िल्म ‘बूट पॉलिश'(राज कपूर 1954)में ऐसे ही दो अनाथ बच्चों की कहानी है, जो अपनी चाची के यहां पल रहे हैं। चाची मजदूरों के बस्ती में रहती है।पति नही है। जिस्मफ़रोशी का काम करती है। ख़ुद के बच्चे नहीं हैं। दोनो बच्चों के प्रति क्रूरता से भरी है। बच्चों को भीख मांगने के लिए बाध्य करती है। बात-बात पर पीटती है। स्नेह तो उसके अंदर जैसे है ही नही। आश्चर्य होता है कि कोई स्त्री इतनी क्रूर कैसे हो सकती है!ममता की एक बूंद भी नहीं! मगर दुनिया विचित्रताओं से भरी है, यहां अच्छे-बुरे हर तरह के स्त्री-पुरूष हैं। पड़ोस में जॉन चाचा हैं। शारीरिक रूप से थोड़े अक्षम हैं। ब्लैक में शराब बेचते हैं, मगर सह्रदय हैं। बच्चों से प्रेम करते हैं। उन्हें काम करने को प्रेरित करते हैं।
जॉन चाचा से दोनों बच्चे(बेलू और भोला) अत्यधिक प्रभावित हैं। वे जब उन्हें भीख नहीं मांगने की सीख देते हैं तो वे किसी तरह पैसे का जुगाड़ कर बूट पॉलिश का काम करने लगते हैं। प्रारम्भिक असफलता के बाद वे काम सीख जाते हैं और थोड़ा बहुत पैसे कमाने लगते हैं। कुछ समय बाद नाटकीय घटनाक्रम में जॉन चाचा अवैध शराब बेचने के कारण जेल चले जाते हैं। इधर बारिश का मौसम आने से बूट पोलिश का काम नहीं मिलने से दोनो बच्चे परेशानी में पड़ जाते हैं। नाटकीय घटनाक्रम मे दोनो बिछड़ जाते हैं। बेलू को एक सन्तानहीन सह्रदय दम्पत्ति गोद लेकर पुत्रिवत स्नेह करते हैं, मगर बेलू लगातार अपने भाई को याद करते रहती है। इधर भोला को चाची घर से निकाल देती है। वह दिन-रात बहन को ढूंढते रहता है। छोटा-मोटा काम भी करता है, मगर दृढ़ता से भीख नहीं मांगता।
इधर जॉन चाचा जेल से छूटने पर बच्चों को ढूंढते हैं। उसे बेलू का घर मिल जाता है।उसकी स्थिति देखकर ख़ुश होते हैं। मगर भोला के लिए चिंतित रहते हैं।
फ़िल्म के कलाईमैक्स में बेलू अपने नये माता-पिता के साथ शहर से बाहर जाने रेलवे स्टेशन पँहुचती है।जॉन चाचा को ध्यान आता है कि आज बेलू बाहर जाएगी, इसलिए वह भी मिलने आते हैं। इधर भोला भटकते, काम ढूंढते भूख से परेशान है। वह भीख नहीं मांगने पर दृढ़ है, मगर अंततः काम नहीं मिलने पर हाथ फैला देता है। संयोग से वह उसी स्टेशन पर आता है, जहां बेलू है। वह बेलू के पापा के पास हाथ फैलाता है। बेलू मुड़कर देखती है। दोनो अवाक ! भोला भीख मांगने की शर्म से भागने लगता है। बेलू उसके पीछे दौड़ती है। इधर जॉन चाचा भी वहीं आते हैं। नाटकीय रूप से सबका मिलना होता है। बेलू के मम्मी-पापा दोनो बच्चों को अपने पास रख लेते हैं। दोनो बच्चों को स्कूल जाते दिखाया जाता है, और फ़िल्म समाप्त हो जाती है।
इस तरह फ़िल्म का जरूर सुखद अंत होता है, मगर हक़ीकत में लाखों बच्चे आज भी अभिभावक विहीन त्रासद जीवन जी रहे हैं। इस फ़िल्म की महत्ता इस बात में भी है कि यह बच्चों की जिजीविषा को दिखाती है, उन्हें श्रम के लिए प्रोत्साहित करती है। अवश्य बचपन पढ़ने-लिखने के लिए है मगर जिनके तकदीर में स्कूल नहीं हैं उनके लिए काम करना भीख से कहीं बेहतर है। फ़िल्म में कई मार्मिक प्रसंग हैं, जिन्हें फ़िल्म देखकर ही जाना जा सकता है।बहरहाल समतावादी समाज का स्वप्न हर दौर में मनुष्य की आँखों मे रहा है, और जब तक वह प्राप्त न हो जाय, रहेगा।
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[2020]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
मो. 9893728320