बोली, बानी, अस्मिता और नागरिक बोध
के साथ खड़ा लेखक
– विनोद साव
किसी नवगठित राज्य के लिए राजधानी की स्थापना के अतिरिक्त जो महत्वपूर्ण मुद्दे होते हैं; उनमें हैं – उसकी राजभाषा, शिक्षा का माध्यम, शैक्षणिक-तकनीकी प्रणाली, आर्थिक नीतियाँ, राजस्व कर, बाजार नियंत्रण, ग्रामीण स्वायत्तता और प्रशासनिक कार्यालयीन उत्तरदायित्वों का बंटवारा, इनके अतिरिक्त भी मुद्दे होते हैं जिन पर छत्तीसगढ़ के प्रबुद्धजनों, शिक्षाविदों, अर्थशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच विचार-विमर्शों और संवाद कायम किए जाने की बड़ी आवश्यकता होती है.
इस प्रस्तुत संग्रह ‘साँच कहे तो मारन धावै’ के लेखक दिनेश चौहान के समग्र लेखन को देखें तो वे बोली, बानी, अस्मिता और नागरिक बोध के साथ खड़े लेखक हैं. वे स्वयं हिन्दी भाषा के अच्छे जानकार हैं पर अपने समग्र चिंतन को वे क्षेत्रीय अस्मिता और उनके सरक्षण संवर्धन से जोड़कर स्थितियों को देखते हैं. आखिर अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए तो लोग अपना अलग राज्य चाहते हैं. उनका यह चिंतन कोरी भावुकता नहीं है बल्कि उनकी सोच का आधार संवैधानिक और लोकतांत्रिक है. वे निराधार बातें नहीं करते हैं बल्कि पूरी तैयारियों के साथ अपने पक्ष को सामने रखते हैं. इन पर बहस करवा लेने का उनमें एक धीमा आग्रह भी है. वे राज्य के सांस्कृतिक विकास को उसकी अस्मिता की आभा से समृद्ध देखना चाहते हैं. उनकी यही गोहार है कि जैसे देश के दूसरे राज्यों के सिपहसालार अपने क्षेत्र की अस्मिता को ध्यान में रखते हुए अपने प्रदेशों में क्रियाशील होते हैं वैसे ही छत्तीसगढ़ राज्य की पहचान उसके लोकतत्वों और लोकभाषा से अनुप्राणित क्यों न हों!
इसलिए वे कहते हैं कि ‘छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण राज्य की दो करोड़ जनता की मातृभाषा के आधार पर किया गया था.. और जब यह राज्य अस्तित्व में आया तब जो उफान दिखा वह अनेक घोषणाओं के बावजूद कुछ दिनों के अंतराल में ठंडा पड़ गया. छत्तीसगढ़ी राजभाषा की घोषणा हो गई, राजभाषा दिवस भी मनाने लगे, आयोग का गठन हुआ. पर हमारी शालेय शिक्षा में छत्तीसगढ़ी का कितना स्थान बना? अंग्रेजी और उड़िया की भी अनियार्यता यहाँ घोषित हो गई पर शिक्षा की प्राथमिकता में प्राथमिक शिक्षा में छत्तीसगढ़ी कहाँ है?’(प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा का महत्त्व).
डेढ़ दशक की छलना के बाद फिर लेखक आशान्वित भी होते हैं “लेकिन अब ठण्डे बसते में गर्माहट सुनाई पड़ रही है. प्रदेश के नए मुखिया ने केन्द्र सरकार को पत्र लिखकर मांग की है कि “जब बहुत सीमित क्षेत्र और बहुत ही कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली कई भाषाएँ संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं तो दो करोड़ से भी अधिक लोगों द्वारा बहुत बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली ‘छत्तीसगढ़ी’ संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने का अधिकार तो रखती ही है.” (अब देर किस बात की)
भाषा के मानकीकरण के समय विरोध के अनेक स्वर उठते हैं. अपभ्रंश को लेकर भी उठते हैं तब लेखक कहते हैं कि “भाषा बोली पहले जाती है वह मानकीकरण का इंतजार नहीं करती… भाषा में अपभ्रंश का होना उसकी थाती और आंचलिक विशेषता है. अतः अपभ्रंश को गलत मानना हमेशा उचित नहीं है. छत्तीसगढ़ी भाषा पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक डॉ.सुधीर शर्मा की यह टिप्पणी है- ‘अपभ्रंश शब्द छत्तीसगढ़ी की एक बड़ी विशेषता है. अपभ्रंश से परहेज करें तो कविता लिखना बंद हो जाए.” (छत्तीसगढ़ी भाषा का मानकीकरण).
लेखक एक शिक्षक है तब उनके भीतर कोई शिक्षाविद भी बोल उठता है. वे स्कूली शिक्षा के अंधे मोड़, आमजनों में बिना परीक्षा पास की भ्रान्ति, सब कुछ है बस शिक्षा नदारद है, सालाना अनुदानों में चुपचाप कटौती, ग्रीष्मकालीन छुट्टी की परंपरा ख़त्म करने की मंशा जैसी शिक्षा की रोज रोज बदलती नीतियों और उनके निकल रहे परिणामों को निरंतर देख-परख रहे हैं.
स्कूलों में खेलकूद कम शिक्षा के साथ खेल अधिक हो रहा है. “अब ऑनलाइन परीक्षाओं का ऐसा जोर है कि स्थिति यह बन रही है कि पढाई लिखाई भले न हों परीक्षाएं जरूर हों. अब मोबाइल खेलते बच्चे से पालक कह भी नहीं सकते कि मोबाइल देखना बंद करो.. भले ही वह वीडियो देख रहा हो.” यह बड़ा संकट विशेषकर सरकारी हिन्दी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे विद्यार्थियों के सामने आ खड़ा हुआ है. निजी शालाएं तो सब अंग्रेजी माध्यमों की हो गई और उनकी चकाचौंध ने उनकी पेशेवर नीतियों को ढांक लिया है. उन्हें चलाने के लिए पालक गण धन लुटाने को तैयार हैं चाहे मज़बूरी में सही. पर ये सरकारी हिन्दी स्कूल तो इस कगार पर आ गए हैं कि उनके शिक्षकगण यह कहने के लिए अभिशप्त हो गए हैं कि ‘यहाँ पढाई के सिवाय सब हो रहा है.’ यहां सहमे हुए शिक्षक और बहके हुए विद्यार्थी हैं. लग रहा है जैसे पूंजीवादी व्यवस्था अपनी पूरी आक्रामकता पर है और आने वाले अपने उद्योगों के लिए यहां मजदूर तैयार कर रही है. लेखक के शब्दों में “सरकार मन की बात सुना रही है और जनता चुपचाप सुन रही है. हां में हां मिलकर हुंकारू देती जा रही है और फंसती जा रही है” (हुंकारू महात्म्य).
लेखक नवापारा-राजिम के त्रिवेणी संगम में हैं तो अपने ‘त्रिनेत्र’ से देख रहे है. उनके बहुआयामी बोध एक साथ कई स्तर पर अपने विचारों के क्षितिज को फैलाते हैं. नदियों की सभ्यता के संस्कार बोलते हैं जिनमें जीवन है तो लोकजीवन भी है.. और अपने समृद्ध इतिहास के साथ संकटग्रस्त वर्तमान को बचाने की कवायद भी उनके पास है. इसलिए अपने समय की उथल-पुथल पर उनकी पूरी नजर है. इसके लिए वे प्रिंट मीडिया के साथ सोशल मीडिया का भी भरपूर रचनात्मक उपयोग कर रहे हैं. फेसबुक जैसे प्रचलित माध्यमों को अपनी बात रखने और आवाज उठाने का वे सटीक माध्यम मानते हैं. महामारी का हल्ला कर उसमें हो रहे उठापटक पर उनकी पूरी नजर है. वे मानते हैं कि षडयंत्रकारी व्यवस्था आपातकाल और विपद्काल को भी भुना लेती हैं. कोरोना को लेकर चल रही बहस में वे जनता को निरंतर आगाह कर रहे हैं कि उन्हें जितना कोरोना से सावधान रहना है उससे कहीं अधिक इस कोरोना काल में व्यवस्था को अंजाम दे रही पेशेवर शक्तियों पर भी ध्यान रखना है. ध्यान रहे यह जनहित में जारी है या ‘डर हित में जारी है!’ (कोरोना वैश्विक महामारी है या वैश्विक महाघोटाला).
दिनेश चौहान स्थितियों को पूरी तरह ठोंक बजाकर देख लेना चाहते हैं छत्तीसगढ़ी के उस मुहावरे की तरह जिसमें कहा जाता है ‘चटकन के का उधार.’ उन पर न केवल बहस करते हैं बल्कि अपनी चर्चा को जन जन तक विस्तार देते हैं. किसी भी तरह की सहमति-असहमति को वे भद्रता से स्वीकारते हैं. अपनी रचनाओं में वे एक ऐसे शिक्षक की तरह खड़े हैं जिनमें नागरिक बोध है और वे बानी, बोली व अपनी जातीय अस्मिता के लिए संघर्षरत आम आदमी को जागृत करने के सरोकारयुक्त व सद्भावपूर्ण प्रयास में निरंतर लगे हुए हैं. यही उनके लेखन का मुख्य ध्येय है. इसे पाठक बखूबी समझ सकते हैं.
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(निबंध संग्रह ‘साँच कहे तो मारन धावै’ की भूमिका)