हो कौन तुम
पहाड़ों के देवता की बेटी
या रंभा,उर्वसी या मेनका
या जंगल के राजा की पत्नी
या हो पद्मावती या शकुंतला
या इस जर्रे जर्रे में महकता लोबान हो
जब कलम चलती है तो बनती जाती है नज्में
उनके सिवा कोई अस्तित्व ही नहीं तुम्हारा
मैं गढ़ता हूँ तुम्हें, हर बार नये रूप में
मैंने जब एक चाँद लिखा तो तुम चाँद हो गई
तुम नहर तुम मृगनयनी तुम मृगतृष्णा
तुम रागिनी तुम राग
तुम संगीत तुम स्वर बनी
तुम उमराव जान
तुम चन्द्रमुखी तुम पारो
तुम नल की दमयंती बन गयी
मेरे शब्दों से जन्मी हो
तो किस बात की अकड़ है तुममें
तुम नहीं थी कुछ भी
इस शायर ने बनाया है तुम्हें
हर जगह सबसे सर्वश्रेष्ठतम
तुम चिरिया तुम तितली
तुम मेघ तुम बरसात
तुम ओस तुम झरना
मैंने ही तो दिए है नाम सारे
है अगर गुरुर तुममें
तो मैं मेरी कविताओं की
मृत्यु लिखूंगा एक दिन
और चला जाऊँगा मंगल ग्रह
तुम्हें आना पड़ेगा इस शायर के पीछे
क्योंकि हुस्न हमेशा
कलम की रहमोंकरम से तो जिंदा है
शायर के बिना तो
तुम अधूरी थी और
अधूरी हो जाओगी
तुम्हें पता है मंगल में तो
बसा है बस सिर्फ पानी ही पानी
तो मैं लिखूंगा तुम्हें पानी
और तुम पानी बन जाओगी
तब मैं घूंट घूंट पीता रहूंगा
तुम्हें अनंतकाल तक
हुस्न प्यास है शायर की
और तुम
मेरी तृप्तता का मीठा सोता!
■ विशाल अंधारे – मुरुड