मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है …
अमृता प्रीतम की पुण्यतिथि पर विशेष…
अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा के दौरान मैंनें एक कार्यक्रम में कहा था कि अमृता प्रीतम स्वयं में एक बेहद खूबसूरत दीवान हैं जिसे सफ़हा दर सफ़हा पढ़ने व समझने की जरूरत है। लगभग यही बात अमृता जी ने अपनी आत्म कथा ‘ रसीदी टिकट’ में कही है – ” जिंदगी जाने कैसी किताब है , जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है और फिर अक्षर-अक्षर टूटती- बिखरती और बदलती है”।
31 अगस्त 1919 को पंजाब के गुंजरावाला में जन्मी अमृता सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध विद्रोही तेवर के लेखन के लिए जानी जाती थीं । उम्र के जिस पड़ाव पर अन्य लड़कियाँ गुड़िया-गुड्डे सजाने अथवा घर सजाने की बात कर रही होती हैं तब अमृता के ज़हन में कई प्रश्न कोंध रहे थे। जाति व धर्म के नाम पर बने सामाजिक खांचे उन्हें उद्वेलित कर रहे थे । उन्होंने स्त्री होते हुए बंधनों के बीच रह कर बंधनों का सशक्त विरोध किया।अन्याय व शोषण के विरुद्ध लिखती व बोलती रहीं। कच्ची उम्र में इबारत लिखना शुरू करने वाली अमृता समय से आगे का सोच रखने वाली लेखिका थीं। अपने लेखन के संबंध में एक बार अमृता ने कहा था– ” मेरी सारी रचनाएँ, क्या कविता और क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूँ एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएँ पैदा हुईं…… मैं सारी जिंदगी जो भी सोचती और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं “।
अपनी ही रचनाओं पर इस तरह का तब्सिरा उनके बगावती तेवर और साहित्यिक बिरादरी के प्रति विक्षोभ का परिचायक था।
अमृता प्रीतम ने लगभग 100 पुस्तकें लिखीं जिनमें उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शुमार है। एक बार सुप्रसिद्ध लेखक व पत्रकार खुशवंत सिंह ने मजाक- मजाक में यह कह दिया कि अमृता की जीवनी बहुत छोटी है जिसे एक डाक टिकट पर लिखा जा सकता है। बस इसी बात से प्रभावित होकर उन्होंने ने अपनी आत्मकथा का नाम ‘रसीदी टिकट’ रखा। रसीदी टिकट ने अमृता को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया। वे आजाद खयाल युवतियों की रोल माॅडल बन गईं। एक जमाना था जब लड़कियाँ ‘रसीदी टिकट’ अपने सिरहाने रखकर सोया करती थीं।
अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी। दोनों की पहली मुलाकात 1944 में प्रीति नगर में हुई थी जहाँ अमृता एक मुशायरे में शिरकत करने गई हुई थीं। ये साहिर के लफ़्ज़ों का जादू था या फिर खामोश आँखों का कमाल कि अमृता पहली ही मुलाकात में उन्हें दिल दे बैठीं। अमृता खुद लिखती हैं कि उस रात तकदीर ने उनके मन की मिट्टी में इश्क का बीज बोया। अमृता साहिर के इश्क में इतनी डूब गईं कि वे उन्हें ‘मेरा शायर’ , :मेरा महबूब’,’ मेरा खुदा’,’ मेरा देवता’ कहकर संबोधित करती थीं। अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में वे लिखती हैं कि किस तरह साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे और एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। साहिर के जाने के बाद वो उनकी सिगरेट के बट्स को फिर से पिया करती थीं। इस तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लगी। साहिर भी अमृता से बेइंतहा प्यार करते थे लेकिन कभी इजहार नहीं करते थे। अमृता साहिर से शादी करने को भी तैयार थीं लेकिन साहिर ने ऐसा नहीं चाहा। बाद में साहिर के जीवन में गायिका सुधा मल्होत्रा आईं और साहिर – अमृता की ये प्रेम कहानी अधूरी ही रही।
अमृता साहिर से किस दीवानगी की हद तक प्यार करती थीं इस संबंध में वे स्वयं रसीदी टिकट में लिखती हैं –
‘एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढ़ा हुआ था। उसके गले में दर्द था – साँस खिंचा-खिंचा था उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी-और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े खड़े पोरों से, उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुए सारी उम्र गुजार सकती हूँ। मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज़ कलम की आवश्यकता नहीं थी’….
वर्ष 1957 में अमृता ने साहिर को एक नज्म लिखी ‘सुनहड़े’। नज्म बेहद लोकप्रिय हुई लेकिन जिनके लिए ये नज़्म लिखी उन्होंने पढ़ी ही नहीं। तमाम पत्रकार व फोटोग्राफर अमृता के घर आ गए। वे उस नज्म को लिखते हुए अमृता की तस्वीर लेना चाहते थे। अमृता आईं और उन्होंने कोरे कागज पर कुछ लिखा भी। लेकिन ये क्या…? अमृता पूरे कागज पर साहिर, साहिर व साहिर लिख कर चली गई।
1956 में अमृता ने साहिर को आखिरी खत लिखा लेकिन पोस्ट नहीं किया। बाद में साहिर का नाम हटाकर वह पत्र इमरोज़ को उनकी पत्रिका में छपने के लिए दे दिया। इमरोज़ ने अमृता से पूछा भी कि उन्होंने वह खत किसके लिए लिखा है और कहें तो वह नाम भी लिख दें। अमृता ने संकोचवश नाम नहीं बताया और इस भ्रम में जीती रहीं कि वह पत्र साहिर ने पढ़ा ही नहीं। बाद में वर्षों बाद जब सब कुछ खत्म हो गया तब एक बार साहिर ने अमृता को बताया कि उन्होंने वह पत्र पढ़ा और पढ़ने के बाद उनकी इच्छा हुई कि वे दौड़े दौड़े के. ए. अब्बास, कृष्ण चंदर और अन्य मित्रों के पास जाएं और चिल्ला – चिल्ला कर कहें कि वह पत्र अमृता ने उन्हें लिखा था।
साहिर ने वर्षों बाद अमृता को बताया कि वे लाहौर में उनके घर के पास जो पान बीड़ी की दुकान थी वहाँ जाया करते थे। कभी सिगरेट, कभी पान, कभी सोडा खरीदा करते थे और अमृता की एक झलक पाने के लिए उस खिड़की के खुलने का इंतजार किया करते थे जो दुकान की ओर खुलती थी।
यह नियति का क्रूर मज़ाक ही था कि 1960 में जब अमृता ने अपने पति से अलग होकर साहिर से शादी करने का फैसला लिया और वो इस फैसले से साहिर को फोन पर अवगत कराने ही वाली थीं कि कहानी में फिल्मी स्टाइल में एक मोड़ आया। उसी रोज एक प्रमुख समाचारपत्र में खबर छपी कि साहिर को अपनी नई मुहब्बत मिल गई है। इस खबर ने अमृता की अंगुलियों पर जैसे ब्रेक लगा दिया ।
साहिर ने भले ही लिखा हो , ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों…’ लेकिन अमृता ताउम्र साहिर को भुला नहीं सकीं। उनकी बात और थी उन्होंने मुहब्बत जो की थी। साहिर के लिए आसमान और भी थे। वे अपनी एक नज़्म में लिखते हैं, ‘ भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही एक हकीकत नहीं कुछ और भी है… ‘
एक बार अमृता व साहिर एशियन राइटर्स की कान्फ्रेंस में शिरकत करने विदेश गए हुए थे। कान्फ्रेंस में सभी प्रतिभागियों को बैज दिए गए थे। अमृता रसीदी टिकट में लिखती हैं, ‘मैंने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर। साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और…’
25 अक्टूबर 1980 को जब इमरोज़ ने अमृता को साहिर के निधन की खबर दी तो अमृता को गहरा सदमा लगा। एशियन राइटर्स कॉन्फ्रेंस वाली बात उनके ज़हन में तैर गई। और फिर वे बोलीं,’ उस दिन कॉन्फ्रेंस में हम लोगों के बैज चेंज हो गए थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर वाला बुलाना तो मुझे चाह रहा हो लेकिन गलत बैज के कारण बुला साहिर को लिया हो’।
इमरोज़ से अमृता की मुलाकात उनकी पुस्तक ‘आख़िरी ख़त’ का कवर डिजाइन करने के सिलसिले में हुई थी। चित्रकार सेठी के सुझाव पर इमरोज़ ने अमृता की किताब का कवर डिजाइन किया जो अमृता को बेहद पसंद आया।इमरोज़ याद करते हैं, ”उन्हें डिज़ाइन भी पसंद आ गया और आर्टिस्ट भी। उसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया।
हर प्रेमी की हसरत होती है कि वो अपने इश्क़ का इज़हार करे लेकिन अमृता और इमरोज़ इस मामले में अलग थे। उन्होंने कभी अपने इश्क का इजहार नहीं किया। इमरोज़ बताते हैं, ” हम पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहते रहे। वो रात के समय लिखती थीं जब ना कोई आवाज़ होती हो ना टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और ना कोई आता-जाता हो। उस समय मैं सो रहा होता था। उनको लिखते समय चाय चाहिए होती थी। वो ख़ुद तो उठ कर चाय बनाने जा नहीं सकती थीं इसलिए मैंने रात के एक बजे उठना शुरू कर दिया। मैं चाय बनाता और चुपचाप उनके आगे रख आता। वो लिखने में इतनी डूबी हुई होती थीं कि मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं। ये सिलसिला चालीस-पचास सालों तक चला।
उमा त्रिलोक अपनी पुस्तक – ‘अमृता एंड इमरोज़- ए लव स्टोरी.’में कहती हैं, “अमृता और इमरोज़ की लव-रिलेशनशिप तो रही है लेकिन इसमें आज़ादी बहुत थी। बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका ज़िक्र होता था तो इमरोज़ कहा करते थे कि एक-दूसरे की ख़ुशबू तो आती है”।
इमरोज़ यह जानते थे कि अमृता उनकी नहीं वे साहिर को चाहती हैं। इमरोज़ बताते हैं,” अमृता ने मुझसे कहा था कि अगर वह साहिर को पा लेतीं तो मैं उसको नही मिलता .तो मैंने उसको जवाब दिया था कि तुम तो मुझे जरुर मिलतीं चाहे मुझे तुम्हें साहिर के घर से निकाल के लाना पड़ता “” जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते कि मुश्किल को नही गिनते मुझे मालूम था कि अमृता साहिर को कितना चाहती थी लेकिन मुझे यह भी बखूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता हूँ “।
उमा त्रिलोक कहती हैं कि ये कोई अजीब बात नहीं थी। दोनों इस बारे में काफ़ी सहज थे। वो ये कहती थी कि साहिर एक तरह से आसमान हैं और इमरोज़ उनके घर की छत! इमरोज अपने स्कूटर पर अमृता को कार्यक्रमों में ले जाया करते थे। अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं… चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो। उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए इमरोज की पीठ पर साहिर का नाम लिखा। इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं! लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता वो साहिर को चाहती और इमरोज उनको।इमरोज़ अमृता से सात वर्ष छोटे थे। अपनी एक रचना में अमृता कहती हैं : ” अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले। मिलना ही था तो दोपहर में मिलते”।
अमृता जब पहली मर्तबा इमरोज़ के साथ साहिर से मुम्बई में मिलीं तो तीनों ने मिलकर ड्रिंक किया। कुछ समय के बाद अमृता व इमरोज़ चले गए लेकिन साहिर वहीं बैठे रहे और बारी बारी से तीनों ग्लास में शराब डालकर पीते रहे। घर पहुँच कर उस रात साहिर ने एक नज्म लिखी :
महफिल से उठ जाने वालो तुम लोगों पर क्या इल्ज़ाम
तुम आबाद घरों के वासी, मैं आवारा और बदनाम
मेरे साथी, मेरे साथी, मेरे साथी खाली जाम
यह नज़्म उन्होंने रात को ही फोन पर अमृता को सुनाई।
वर्ष 1958 में जब इमरोज़ को मुंबई में नौकरी मिली तो अमृता को दिल ही दिल अच्छा नहीं लगा। उन्हें लगा कि साहिर लुधियानवी की तरह इमरोज़ भी उनसे अलग हो जाएंगे। इमरोज़ को ख़ुश देख कर वो ख़ुश तो हुईं लेकिन फिर उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। उन्होंने यह तो जताया कि वो इमरोज़ को मिस करेंगी, लेकिन कहा कुछ नहीं। इमरोज़ के जाते ही अमृता को तेज बुख़ार आ गया। तय तो इमरोज़ ने भी कर लिया था कि वे वहाँ नौकरी नहीं करेंगे। दूसरे दिन ही इमरोज़ ने फ़ोन किया कि वे वापस आ रहे हैं। अमृता ने पूछा सब कुछ ठीक तो है ना। इमरोज़ बोले सब कुछ ठीक है लेकिन वे इस शहर में नहीं रह सकते। उन्होंने तब भी यह नहीं बताया कि वे उनकी खातिर वापस आ रहे हैं। जब इमरोज़ दिल्ली पहुँचे तो अमृता उन्हें कोच के बाहर इंतजार करती मिलीं उन्हें देखते ही अमृता का बुख़ार उतर गया।
31 अक्टूबर 2005 को लंबी बीमारी के बाद अमृता का निधन हो गया। उन्होंने अपनी अंतिम नज़्म में इमरोज़ के लिए लिखा था, “मैं तुम्हें फिर मिलूँगी”।
इमरोज कहते हैं, “… वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में,, कभी किरणों की रोशनी में, कभी ख़्यालों के उजाले में। उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं…”
मेरी कृति” फिर वो भूली-सी याद आई है”… से साभार
डाॅ0 अनिल उपाध्याय