November 21, 2024

काला जल: त्रासदी की मौन कथा

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‘काला जल’ शानी जी का चर्चित उपन्यास है। एक तरह से यह उनकी पहचान सा बन गया है। हालांकि उन्होंने अन्य महत्वपूर्ण रचनाएं भी लिखी हैं; जिनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। इस उपन्यास को इस कारण से भी याद किया जाता है कि यह मुस्लिम सामाजिक लोक जीवन को केन्द्रीयता में प्रस्तुत करने वाले प्रारम्भिक उपन्यासों में है; सम्भवतः पहला।इस उपन्यास का रचनाकाल 1959- 61 के बीच का समय माना जाता है। उस समय सभ्यता के आधुनिक सुविधाओं से लगभग दूर सुदूर बस्तर में रहकर ‘काला जल’ का सृजन करना अपने आप में महत्वपूर्ण है।

जैसा कि हमने कहा इस उपन्यास की चर्चा होती रही है; उनमे 1981 में भूमिका के रूप में राजेन्द्र यादव जी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। राजेन्द्र जी ने शानी जी के चित्रण शैली,सांकेतिकता, पात्रों के मनःस्थिति के चित्रण, कथ्य की सहजता यानी ‘उपन्यास कला’ की तारीफ की है।हालाकिं उन्होंने पात्रों के ‘ठहराव’, ‘नियतिवाद’ की घुटन को भी रेखांकित किया है। उन्होंने इसे स्वतंत्रता के बाद के महत्वपूर्ण उपन्यासों में स्थान देते हुए भी इसे आगामी श्रेष्ठ रचनाशीलता की ‘भूमिका’ कहा है; और अपनी पीढ़ी को लक्ष्य करते हुए कहा है कि ‘हम सब भूमिकाओं और प्रस्तावनाओं में ही रुक जाते हैं।

इस उपन्यास का देशकाल देखें तो ‘कहानी’ बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के लगभग से आजादी के तुरंत बाद तक के कालखण्ड का है। परिवेश बस्तर के जगदलपुर के मोती तालाब के आस-पास का क्षेत्र है। उपन्यास के चरित्र निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार की तीन पीढ़ियां हैं। कथानक मुख्यतः फ्लैश बैक शैली में उभर कर आता है। कथावाचक बब्बन अपनी छोटी फूफी के यहां फ़ातिहा पढ़ते समय उन चरित्रों को याद करता है और उसकी स्मृति में उनकी कहानी उभर आती है। इस तरह कहानी आगे बढ़ती है।उपन्यास का शीर्षक ‘काला जल’ मोती तालाब के ठहरे हुए, बिसायन्ध भरी गंध वाले,उपेक्षित काला जल है; जो प्रकारांतर में उस ठहरे हुए, कई पीढ़ियों से लगभग गतिहीन परिवार और समाज का प्रतीक है।उपन्यास के बीच-बीच में इसका जिक्र स्थिति को और त्रासद बना देता है।

मिर्ज़ा से मोहसिन तक तीन पीढ़ियों के इस परिवार में ऐसा लगता है मानो समय ठहर गया है,केवल चरित्र बदलते हैं। सारे चरित्र गतिहीन, नियति के मारे, लगभग प्रयासहीन जैसे किसी जाले में जकड़े हुए हैं; और कोई इस जाले को तोड़ने का प्रयास भी नहीं करता। बाहरी दुनिया का इनके जीवन में जैसे कोई दखल ही नहीं है।सब अपनी कुंठाओ और बेबसी से घिरे, उसमे जीते, गाहे-बगाहे अपने ‘पहुँच’ के अंदर उसका प्रकटीकरण करते रहते हैं।सब दुनिया से लगभग कटे कभी कुछ नया सोचते भी नहीं। लेकिन यह नियति क्या एक परिवार भर की है? इस ‘जड़ता’ का कारण सामंती जीवन मूल्य के साथ-साथ आर्थिक अक्षमता ही मुख्य है। आर्थिक समस्या हजार रूपों में जीवन को जकड़ती है।

मिर्जा, रज्जू मियां,रोशन,बब्बन के पिता,किसी की भी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं है। मिर्जा के जीवित रहते तक स्थिति लगभग ठीक थी ; मगर उसके निधन के बाद स्थिति भयावह होती चली जाती है। सबसे खराब स्थिति बब्बन के पिता की है। क्लर्की में गबन के कारण घर बेचना पड़ता है।ये पुरूष अलग-अलग ढंग से आर्थिक समस्या से जूझ रहे हैं, मगर उनकी कुंठा घर-परिवार पर ही प्रकट होती है।पुरुषवाद से ग्रसित इन चरित्रों के अपने-अपने अंतर्विरोध हैं। अपनी कुंठा पत्नी को पीटकर निकालना इनके लिये आम है।नैतिक-अनैतिक के मानदंड इनकी अपनी सुविधा के अनुसार है। रज्जु मियां अपनी बहु की बाँह पकड़ लेता है। बब्बन के पिता का किसी और स्त्री से सम्बन्ध है मगर सल्लो आपा की ‘स्वच्छन्दता’ अस्वीकार्य है और वह एक तरह से मारी जाती है।

उपन्यास में स्त्री चरित्रों की केन्द्रीयता सी है।इन चरित्रों में ‘छोटी फूफी’ का चरित्र कथा का माध्यम है और विभिन्न सूत्रों को जोड़ती है। अल्हड़ सी किशोरवय एक कमसिन युवती कैसे हालात के थपेड़ों से मार खाकर अपनी स्वाभाविकता खो देती है। ससुर-पति-सास क आगे जैसे उसकी कोई जिंदगी नहीं है।बहुत बार तो वह दूसरों के सनक को शांत करने का महज साधन भर प्रतीत होती है।यह स्त्री जीवन की त्रासदी है कि उसकी कोई अस्मिता नहीं रही है। यह नियति उपन्यास के लगभग सभी स्त्रियों की है चाहे बिलासपुर वाली हो कि बब्बन की मां,रुबीना, भाभी। यहां तक कि अपेक्षाकृत मुखर बी दारोगिन और सल्लो आपा की भी।यों पुरुष की ‘प्रभुता’ में भी खोखलापन है,जो अधिकतर उसकी खीझता और बेबसी का प्रकटीकरण भर है। कुछ है इस परिवेश में जो सबको अपने ज़ंजीरो में जकड़े हुए है। इस परिवेश के लिए इसी उपन्यास का यह कथन कितना सार्थक है “न नयी इमारत बनती है न पुरानी टूटती है”।गरीबी सबकुछ भले न हो बहुत कुछ अवश्य है।

बाहरी दुनिया से अलग-थलग से दिखाई देते इन चरित्रों के बीच बाहर के बहुत कम चरित्र आते हैं। एक त्रिवेदी काका जो बब्बन के पिता के दोस्त हैं; जिनकी भूमिका केवल मकान बिकवाने तक है।अलबत्ता पी.सी. नायडू, पं. वाणी विलास, मोहसिन अवश्य उस एकांतिक द्वीप में हलचल लाते हैं। नायडू स्वतन्त्रता आंदोलन के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता। नौकरी, शासन का भय और स्वार्थ के चलते और एक हद तक दुनिया से बेखबर इस परिवेश में कुछ भी सार्थक नहीं हो पाता और वे लगभग अवसाद में चले जाते हैं।मोहसिन जैसे नवयुवक जिसने यूनियन जैक जला दिया था, इस असहयोग और उपेक्षा के प्रभाव से विचलित होकर ‘पलायनवादी’ हो जाता है।विभाजन और आजादी के बाद के व्यापक मोहभंग भी इसकी पृष्टभूमि में हैं।

बब्बन जो इस कहानी का सूत्रधार है, का व्यक्तित्व संकोची और दब्बूपन का है।इसमे लेखक के व्यक्तित्व की छाप भी कहा जाता रहा है।सल्लो आपा के प्रति उसका किशोरवय आकर्षण सहज है। मगर उसके व्यक्तित्व में भी अभावग्रस्तता की गहरी छाप है। इन चरित्रों में मुखरता और मौन सापेक्षिक ही है। यदि पुरुष अपनी कुंठा स्त्रियों को पीटकर निकालते हैं तो ‘बी दारोगिन’ जैसी स्त्रियों के विलाप के आगे बेबस भी हैं।ऐसा लगता है सब एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं और उसे स्वीकार नहीं पा रहे हैं। लेकिन क्या हम सब के अंदर एक बब्बन नहीं है? घटनाओ को देखते मग़र उसे बदल न पाने और फिर एक निष्क्रिय तटस्थता क्या हमारे समय का भी द्वंद्व नही है?यह छटपटाहट और द्वंद लेखक में भी है जिसे उसने भूमिका में व्यक्त किया है, और ‘दूसरे की निरुपायता और आंतरिक विवशता’ पर सम्वेदना की उम्मीद की है।

इस तरह यह उपन्यास अपने दौर के आंतरिक विवशता का मार्मिक चित्रण है। इसमे जो भी चरित्र हैं, अपने अंतर्विरोधों के साथ हैं। आप उन पर खीझ सकते हैं, उनकी ‘जड़ता’ का उपहास कर सकते हैं, मगर आप एक गहरी सम्वेदना में भीगते चले जाते हैं,और यही उपन्यास की सफलता है।आज देश और काल में बदलाव आ गया है; आज सभी समाजों और सांस्कृतिक समूहों में बदलाव आया है। जो लोग भिन्न सांस्कृतिक समूह को हमेशा सन्देह से देखते हैं, उनकी एक काल्पनिक छवि बनाते हैं, वे देख सकते हैं कि जीवन की आर्थिक और मूलभूत जरूरतें किसी भी समस्या से बड़ी होती है और इससे कोई भी समूह अछूता नहीं है। राजेन्द्र जी ने उचित ही लिखा है कि इन चरित्रों की जगह किसी अन्य समूह के चरित्र भी रख दें तो कहानी लगभग वही रहेगी।मनुष्य की जरूरते और समस्याएं किसी जाति-धर्म से बड़ी होती है, यह उपन्यास हमें यह भी दिखाता है।

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[2019]

●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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