लिटरेरी फेस्टिवल की स्वायत्तता का सवाल
‘आज तक’ चैनल और कैंसर महारथी रजनीगंधा पान मसाला के साहित्य उत्सव का तिलिस्म खुलते- खुलते खुलेगा
देश में बड़ी संख्या में साहित्य उत्सव हो रहे हैं। इन्हें इन दिनों लिटरेरी फेस्टिवल या फेस्ट कहने में ज्यादा गौरवबोध होता है। किस लेखक का मन नहीं करेगा इसमें भाग लेने का। इस दौर में साहित्यिक किताब की दुकानें बंद होती जा रही हैं, पढ़ना कम होता जा रहा है और लिटरेरी फेस्ट बढ़ते जा रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं, देश में इसकी संख्या 500 पार कर गई हो।
पिछले कुछ दशकों से मनोरंजन उद्योगों और हिंसक राजनीतिक प्रतिस्पर्धाओं ने आमतौर पर साहित्यिक लेखकों को ‘नगण्य’ बना दिया है, इनकी समाज से विच्छिन्नता बढ़ी है। आलोचकों द्वारा सटीक मूल्यांकन न होने की तकलीफ खास है, क्योंकि आलोचक नामधारी जीव विचारधाराओं, सिद्धांतों और अपने वैचारिक मुद्दों को संभालने में लगे रहे हैं! पुरस्कारों पर राजनीतिक पार्टियों का कब्जा हो गया है। इधर पढ़ते भी कम लोग हैं, ज्यादातर लोग अपने को पढ़ाने में लगे रहते हैं। कई अन्य वजहें भी हैं जिनसे लेखकों में निराशा किसी भी दौर से आज ज्यादा है।
ऐसे में किसी फेस्टिवल से बुलावा आता है तो मन में फुरफुरी होती है, अपना महत्व समझ में आता है और लेखक सबकुछ भूल करके उसमें शामिल होते हैं। इसमें बुराई नहीं है। साहित्य उत्सव लेखकों को एक राहत देता है, यह फेस्ट की प्रतिष्ठा और विस्तार के अनुसार लेखक को कुछ अधिक लोगों की निगाह में लाता है, बहुतों से मिलना -जुलना और ‘हैसियत’ के अनुसार 7 स्टार से लेकर 3 स्टार तक स्वागत – सत्कार होता ही है। बड़ा कठिन है इसके आकर्षण से बचना।
लिटरेरी फेस्टिवल की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये साहित्यिक बिरादरी का अहसास कराते हैं, साहित्य की शक्ति का भी अहसास कराते हैं। ये अधिक उपयोगी बनाए जा सकते हैं, यदि एलीटवर्गीयता से अपना दायरा बढ़ाकर सीमांत के लेखकों तथा पाठकों तक पहुंच बढ़ाएं।
साहित्य उत्सव ज्यादा अर्थपूर्ण होंगे यदि प्रकाशक लोग लेखकों और साहित्यप्रेमी स्पॉन्सरों का सहयोग लेकर इसका खुद आयोजन करें। क्योंकि तब लिटरेरी फेस्टिवल का संबंध पढ़ने की संस्कृति से बनेगा और मामला लिटरेरी चाट तक सीमित नहीं रहेगा। ऐसे उत्सव या मेले आकार में भले छोटे हों, इनसे पढ़ने की संस्कृति का विकास होगा।
आमतौर पर इधर के लिटरेरी फेस्टिवल कुछ लेखकों और कलाकारों को आइटम बनाकर उपस्थित कर देने, बौद्धिक मनोरंजन देने या कोई नकली विवाद खड़ा कर देने तक सीमित रहे हैं। उनके पास कोई विजन नहीं होता। फेस्ट का अंततः कोई बड़ा सामाजिक असर भी नहीं होता। उसका मकसद साहित्य को एक तमाशे में सीमित कर देना होता है, यदि प्रकाशकों और लेखकों द्वारा आयोजित न हो रहा हो।
बड़े फेस्टिवल साहित्यिक तुष्टीकरण के लिए नए लेखकों को भी चुनते हैं, खासकर नरम लेखकों को या उन्हें जो फेंस पर खड़े हैं। इनका उनके मन पर असर होता है।
बड़े लिटरेरी फेस्ट साहित्य के कॉरपोरेट युग का अहसास करा देते हैं। इनमें छोटे सभागार नहीं, कई मंच, कई स्क्रीन होते हैं। बीसों गोल टेबल घेरकर लेखक- श्रोता बैठे होते हैं तो एक अलग ही दृश्य बनता है। उससे साहित्य के कारपोरेट रस का मजा मिलता हैं!
यहां तक कोई खास समस्या नहीं है, क्योंकि पूरी दुनिया ही सुख और मजे की तलाश में है।
फिर समस्या क्या है? समस्या बहुत बड़ी है। जब लेखक, प्रकाशक और पाठक के बीच चौथा आदमी घुसता है, तब समस्या बड़ी हो जाती है। यह चौथा आदमी ‘आज तक’ अर्थात ‘सत्य’ का सबसे तेज चैनल है। यह गोदी मीडिया के नाम से भले जाना जाए, पर साहित्य की गंगा में पवित्र हो जाता है। जिस आजतक न्यूज चैनल में हिन्दी के बड़े साहित्यकारों की मृत्यु की सूचना तक नहीं आती, वह साहित्य का इतना बड़ा प्रेमी कैसे बन गया? वह भी कैंसर के महारथी रजनीगंधा पान मसाला के साथ उसका कितना मायावी वेश है! ‘आज तक’ चैनल और पान मसाला को सांस्कृतिक वैधता चाहिए।
जबकि ‘आज तक’ के नीचे लिखा रहना चाहिए — ‘सोच के लिए खतरनाक’, जिस तरह रजनीगंधा के नीचे — ‘स्वास्थ्य के लिए खतरनाक’! निश्चय ही इसमें लेखक जाएंगे। उनसे कोई शिकायत नहीं है। बस मैं अपनी चिंता व्यक्त करना चाहता हूं। इनके आयोजन में बाबा, बापू, स्वामी के साथ कुछ इंटरनेशनल सेलेब भी आ रहे होंगे। मंत्री होंगे, क्योंकि कारोबार बढ़ाना है। कई तरह के नामी गिरामी लोग होंगे और फेस्ट का एक प्रच्छन्न राजनीतिक रूप भी होगा। यह पहला आयोजन है, इसलिए तिलिस्म खुलते- खुलते खुलेगा।
साहित्य उत्सव या मेले नए समय के लिए जरूरी हैं, पर इनकी स्वायत्तता एक बड़ा प्रश्न है। मैं दो साल पहले मध्य प्रदेश के एक साहित्यिक उत्सव में इसलिए नहीं गया था कि उसका उद्घाटन गवर्नर और मंत्री कर रहे थे। और भविष्य में भी ऐसे किसी फेस्ट में नहीं भाग लूंगा, जिसमें उद्घाटन साहित्यकार द्वारा न होकर सरकारी लोगों द्वारा होगा। मुझे लगता है, हमने जो लिखा है, उसके पास ज्यादा से ज्यादा खड़े रहने का अभ्यास करना चाहिए, भले नुकसान हो।
सरकारी लोगों का स्वागत है, वे आएं, पर कोई तो जगह ऐसी हो जहां वे थोड़ी देर बैठकर सिर्फ सुनें। एक अच्छे लोकतंत्र में नेताओं को कभी- कभी साहित्यकारों को भी सुनने की आदत डालनी चाहिए!
लेखक के पास राजनीतिक शक्ति नहीं होती, उसकी आवाज सुनी नहीं जाती। पर वह जहां भी जाए, बोलेगा क्यों नहीं? बोल कि सच अभी जिंदा है! हां, तर्क और शालीनता से बोलने की जरूरत है। क्योंकि हम कहीं न कहीं सुने जा रहे हैं, भले यह न जानें कि हम सुने जा रहे हैं!!
— शंभुनाथ