संदीप अवस्थी की चार कविताएँ
कविता 1.एक बेहतर दुनिया के लिए
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एक बेहतर दुनिया के लिए
वह घरों से बाहर आई
सड़कों पर उतरी और
खड़ी हो गई संगीनों के सामने मुस्कुराते हुए उन्होंने देखा और देखते ही देखते आधी आबादी सड़कों पर थी और
पुरुष कहीं नहीं थे
जो थे वह संगीनों के पीछे
और कुर्सियों के ऊपर थे ।
2.
एक बेहतर दुनिया के लिए
जहां अंधेरा ना हो
चेहरों पर उजाला हो
दिल से जब उजास निकलती है तो
कैसे चेहरे पर नूर ए अब्र दिखता है
आंखें आंखों से बात करें
मुस्कान मुस्कान को पहचाने और एक दूसरे को जी भर के देख सकें,
आंखों में उतर जाए यह कायनात
(3)
ऐसी एक बेहतर दुनिया के लिए
वह हंसते खेलते विरोध करती और
उम्मीद रखती उन्की यह छोटी सी मांग,
इच्छा,ख्वाहिश कि वह उजाले में इस खूबसूरत दुनिया,उसके बंदों और
अपने जैसी असंख्य स्त्रियों को रुबरु देखें मिलें, मुस्कराए, दोस्त बनाए ,
खूब हंसे,खिलें ऐसे की खुदा भी उनके साथ मुस्कराए और
सोचे की यह अध्भुत रचना क्या मेरी ही है?
( 4)
जल्द पूरी होगी यह मांग पर
वह यह भूल गई की यह खुमेनी का संसार है
कंजरवेटिव लोगों की जमीन है जहां कुछ भी संभव है बस उजाला असंभव है और
हंसने,खेलने की उम्र में
एक बेहतर दुनिया बनाने की
छोटी सी उम्मीद लिए
गोलियों से
छलनी कर दी गई
वह फूल सी खिलती
चिड़िया सी उड़ती और
पूरी कायनात को चोंकाती लड़कियां,
सो गईं हमेशा के लिए
एक बेहतर दुनिया का सपना
आँखों मे लिए ।
(5)
उन छलनी की गईं मजबूत,बहादुर बेटियों की माँए
खुलकर रो भी न सकीं
और न याद कर सकीं
बस मिटा दी गई एक लकीर के
निशान सी देखती हैं वह
उनके फ़ोटो, उनका कोना, उनकी खुशबू ।
(6) विरोध
नहीं हुआ कोई विरोध
न हुआ आंदोलन
विश्व की बड़ी-बड़ी महा शक्तियां उलझी रही
युद्ध,चुनाव और अंतरिक्ष के कार्यक्रम में
भूल गई कि धरती को बेहतर बनाना
स्त्रियों को उनकी जगह,
उनका उजाला,उनकी उड़ान देना
और मेरे देश में तो शायद
कोई भी इनके नाम तक नहीं जानता और
ना इनके पक्ष में एक आवाज भी सुधारवादी,प्रगतिशील कोई भी बुद्धिजीवी नहीं उठाता
मानो वह हैं ही नहीं और
ना इन्हें थोड़ा सा उजाला मांगने का हक़ है
मैं शर्मिंदा हूं सभी नारियों से कि
इस दुनिया में रहता हूँ जो
उजाले मांगने पर मौत देती है।
(डॉ.संदीप अवस्थी, मो 7737407061,भारत )