किताब
सुभाष दीपक
बारिश हो रही थी। जनवरी माह की ठंड भी अपने जोर पर थी। बरामदे में टहल रही मिसेज अस्थाना की नजर बंगले के गेट के पास खड़े थरथर कांपते आठ दस बरस के एक छोटे से लड़के पर पड़ी। एक बार तो उसकी तरफ देख कर भी उन्होंने अनदेखा करना चाहा लेकिन फिर जाने क्यों उन्हें दया आ गई।
“ओए, कौन हो ,,,यहां क्या कर रहे हो ?” उन्होंने पूछा। लड़का सहम गया और सिकुड़ कर एक तरफ हो गया। कुछ इस तरह कि वह दिखाई ना दे। अचानक बादल गरजे और बिजली भी चमकी। मिसेज अस्थाना घर के भीतर जाने को हुई थी कि उन्हें बच्चे का ख्याल आ गया।
” ओए बच्चे ..भीतर आ जाओ।” उन्होंने ऊंची आवाज में कहा ताकि बादलों की गड़गड़ाहट के बीच में उनकी आवाज बच्चा सुन सके। बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया। मिसेज अस्थाना ने अपने नौकर से कहा-
“छतरी लेकर जाना तो… उस बच्चे को भीतर ले आओ…. मर जाएगा बेचारा।”
नौकर शीघ्र ही बच्चे को ले आया। पूरी तरह भीग गया था बच्चा और ठंड से उसके होंठ कांप रहे थे। मिसेज अस्थाना ने तुरंत उसे भीतर लिया।
“क्या करते हो,,, क्यों आए बाहर ऐसे मौसम में…. घर में नहीं रह सकते थे?” उन्होंने करीब करीब बच्चे को डांटना शुरू कर दिया बच्चे ने अपने गीले कमीज की बांह से अपने चेहरे को पौंछा और फिर नीची नजर करके खड़ा हो गया।
” कहां रहते हो ?” उन्होंने फिर सवाल किया।
“कहीं नहीं ।” बच्चे ने उत्तर दिया।
“कहीं नहीं का मतलब।” मैसेज अस्थाना उसके उत्तर से चौंक गई थी।
“कुछ पता नहीं,, कभी कहीं, कभी कहीं।” बच्चे ने मासूमियत से जवाब दिया।
मिसेज अस्थाना ने नौकर से एक तौलिया लाने को कहा। तौलिया जब आ गया तो उन्होंने बच्चे की तरफ बढ़ाते हुए कहा_
“लो पौंछ लो सब भीग गए हो।”
बच्चे ने तौलिया लेने से मना कर दिया।
“क्यों क्या हुआ ?”
“खराब हो जाएगा।” बच्चे ने जवाब दिया।
“कोई बात नहीं, पौंछो जल्दी।” कहकर उन्होंने तौलिया उसकी तरफ उछाल दिया। बालक ने अबकी बार तौलिया पकड़ लिया और अपने हाथ, पैर तथा चेहरे को उससे पौंछ लिया ,हालांकि उसके कपड़ों से अब भी पानी चू रहा था।
“क्या करूं,, तुम्हारी साइज के कपड़े तो मेरे पास है नहीं।” मैसेज अस्थाना दुखी होते हुए बोली।
“कोई बात नही, अभी सूख जाएंगे।” बालक ने तौलिया एक तरफ रखते हुए कहा।
मिसेज अस्थाना बरामदे में ही एक कुर्सी पर बैठ गई। बालक भी तब तक फर्श पर बैठ गया था।
नौकर से कहा-
“जाओ इसके लिए एक चाय तो बना लाओ और कोई कंबल या शॉल भी इसके लिए लाओ।” नौकर चला गया।
“क्या नाम है तुम्हारा?” अगला सवाल था मिसेज अस्थाना का। बालक चुप रहा।
“अब बताओ, क्या नाम है तुम्हारा?”
“पता नहीं।” बालक बोला।
“पता नहीं, कोई नाम होता है!”
“मेरा मतलब है, मालूम नहीं।” बालक ने स्पष्ट किया।
“मालूम क्या नहीं ? किसी नाम से तो तुम्हें, घरवाले बुलाते होंगे।” मिसेज अस्थाना को झल्लाहट हो रही थी।
“जब घर ही नहीं तो घर वाले कहां से होंगे, जो मुझे पुकारें।” बालक ने हंसकर जवाब दिया।
मिसेज अस्थाना को हैरानी हुई। उन्होंने सोचा बालक अपनी पहचान छुपा रहा है शायद।
“कहीं से भाग कर आए हो ?” उनके
इस सवाल पर बालक हंसा। इस पर मिसेज अस्थाना को और आश्चर्य हुआ।
“डरो नहीं सच बताओ।”
“सब जगह से भगा दिया गया हो जिसे वह क्या भाग कर आएगा कहीं मैडम।” बच्चे के दार्शनिक सरीखे जवाब से मिसेज अस्थाना को उसके बारे में और अधिक जानने की उत्सुकता हो गई।
“मतलब ?”
“जहां भी गया वहीं से भगा दिया गया। मां का ब्याह नहीं हुआ था ना ,तो उसने सबसे पहले तो उसी ने भगाया,, फिर जहां भी गया वहां से भगाया जाता रहा ,, तब से भाग ही रहा हूं मैडम। थक गया हूं अब तो…।” बालक के चेहरे पर जाने कितने भाव एक साथ उभर आए।
मिसेज अस्थाना से, उसकी मासूमियत देख कर , रहा नहीं गया। उठकर जाने क्यों उन्होंने उसे छाती से लगा लिया।
“मेरे बच्चे…” उन्होंने इतना ही कहा। बच्चा उछलकर दूर हो गया।
“एक बार फिर से कहिए ना मैडम….. इस तरह के शब्द सुनने को तरस गया हूं।”वह सिर्फ इतना बोल सका।
“मेरे बच्चे” कहते हुए मिसेज अस्थाना ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा-” फिर क्या कहते हैं लोग तुम्हें ?”
बच्चा पहले तो चुप रहा और फिर बोला- “कोई ओए बोले, कोई लौंडा बोले, कोई अबे बोले और ज्यादातर तो लोग ….” वह कहते कहते रुक गया। आंखें भर आई उसकी फिर बोला,,
“हरामी कहे हैं।”
मिसेज अस्थाना को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपनी रुलाई रोकी ।तब तक नौकर चाय लेकर आ गया था। साथ में एक कंबल भी। मिसेज अस्थाना के कहने पर उसने चाय पी और कंबल को अपने बदन के चारों और लपेट लिया। मौसम भी थोड़ा साफ हो चला था।
मिसेज अस्थाना ने उससे कुछ देर रुकने को कहा और भीतर चली गई। दो-तीन जगह उन्होंने फोन कियेऔर फिर हंसते हुए बाहर आई।
“तुम्हें अब कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मैंने एक शेल्टर होम में बात कर ली है। तुम वहां रहोगे।” मिसेज अस्थाना को लग रहा था सुनकर वह खुश होगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बालक ने अपनी चाय का कप एक तरफ रखा और अपने बदन से कंबल उतार कर समेटी तथा उसे भी एक कोने में रखते हुए बोला-
“ये शेल्टर होम हम हरामियों के लिए नहीं होते मेम साहब। एक दिन भी नहीं रख सकेंगे वे मुझे।”
इतना कहकर वह बंगले से बाहर चला आया। असहाय मिसेज अस्थाना, अनुभव भरे उसके वाक्य को सुनने के बाद,बस उसे जाते हुए देखती रहीं। देखती रहीं कि कैसे एक बालक अपने अनिश्चित भविष्य की किताब को एक अनोखे विश्वास के साथ, समेट कर , दूर चला जा रहा है।
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