November 21, 2024

समीक्षा : प्रेम की 57 कविताएँ

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रचनाकार: प्रेमसिंह राजावत ‘प्रेम’
विधा: काव्य
प्रकाशक: राष्ट्रभाषा प्रिंटिंग प्रेस (आगरा)
मूल्य: 150/-
पृष्ठ: 72

कविता कवि के मनभावों को उच्छ्वासित करके उसके जीवन में नये आयाम उत्पन्न कर देती है। उसका मन समग्र-सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगता है। उसके व्यक्तित्व से अनुचित और निष्ठुर कार्य पलायन करने लगते हैं। उस समय अनुभव होता है कि उसका जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है या कहा जा सकता है कि वह सम्पूर्ण संरचना का दृष्टा बन जाता है। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ कवि प्रेमसिंह राजावत ‘प्रेम’ की और उनकी कलम से निसृत उनके काव्य-संग्रह “प्रेम की 57 कविताएँ।” उनके इस संग्रह की कविताएँ केवल मनोरंजन मात्र के लिए या अपनी ख्याति के उद्देश्य से नहीं रची गई हैं, अपितु ये पाठक के हृदय को शिक्षित करती हुई उसे उत्कृष्ठ और आलोकिक प्रेम और सद्भावना से परिचित कराती हैं। जिनके आलोक में पाठक मन राष्ट्रभक्ति, आध्यात्म और जीवन के सात्विक मूल्यों का स्पर्श ही नहीं करता अपितु उनका हामी बन जाता है।
काव्य-संग्रह ‘प्रेम की 57 कविताएँ ‘ का आद्योपांत अवलोकन करते हुए मुझे उसी आनंद की अनुभूति हुई जो कि एक विविधवर्णी तुषार-छाये उपवन के फूलों की गंध-मंदाकिनी के साथ मधुर मधुमय यात्रा के रसवंत पलों के सानिध्य में होती है। वही मंगल आसक्ति भारत-भूमि के प्रति कवि प्रेमसिंह जी के भाव-प्रवण मन में हुई है। उसे आप स्वयं देखिए:-
*नया सवेरा नया उजाला, नया नया*उत्साह* ।
*नये पवन के झोंके होंगे, नई मिलेगी*राह* ।
*स्वच्छ निरोगी भारत होगा, होगा नया*विकास* ।
*लेगा करवट फिर पतझड़ के, आँगन * में मधुमास।*
कवि प्रेमसिंह राजावत के लिए उनके गीत ही उनके लिए सब कुछ हैं। पूजा हैं, संस्कार हैं, ब्रह्मज्ञान हैं, काव्यनंदन हैं, भक्ति वंदन हैं। गीत ही उनके लिए मां की आराधना हैं। तभी तो कवि मन से निम्न पंक्तियाँ प्रस्फुटित हुई हैं:-
*बड़े प्यार से दूध पिलाया, पल-पल*किया दुलार माँ।*
*तेरे आँचल में दिखता था, मुझको सब*संसार माँ।*
*खुद दुख पाकर सब सुख देती, मेरा*रखती ध्यान माँ।*
*धरती माँ से बढ़कर प्यारी, होती है*भगवान माँ।*
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में सामाजिकता गुंथी हुई है। उनमें सामाजिक परिवेश के दर्शन ही नहीं अपितु सामाजिक परिवेश छाया हुआ है। प्रेम राजावतजी के मनोभाव प्रेम रस और चंदनी गंध से लसित हैं। उन्हें जितना सुख से प्रेम है उतना ही उन्हें दुख से प्रेम है, तभी तो उन्होंने कहा है:-
*जो कहते थे अपना-अपना, पास*नहीं वे आते हैं।*
*बुरे वक्त में सगा न कोई, राह बदल*कर जाते हैं।*
*जिन लोगों से मिले नहीं हैं, उनसे*वक्त मिलाता है।*
*बुरे वक्त को बुरा न समझें, कुछ देकर*यह जाता है।*
हमारे महान आदर्श आज नग्न यथार्थ के कटघरे में खड़े हैं, जहाँ मानव जीवन सिकुड़ रहा है। वहीँ भारत की बहारी सीमाएँ और आंतरिक शांति विस्फोटों की अग्नि से झुलस रही है। अलगाववाद, आतंकवाद तथा कट्टरवाद भारत की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता को खण्ड-खण्ड करने पर आमादा है। यह सब परिदृश्य इस संग्रह के कवि मन को विचलित किये हुए हैं। उसका मन जानता है कि शब्द क्रांति, रक्तहीन अगोचर क्रांति है, जो जन मन गण से सीधा सम्पर्क कर मानसिकता को बदल सकती है। आज समाज में फैले प्रदुषण को दूर करने की आवश्यकता है। यह शक्ति दंडित करने में नहीं अपितु सु-साहित्य में छिपी है। इस दृष्टि से मैं कवि प्रेमसिंह राजावतजी के काव्य-संग्रह ‘प्रेम की 57 कविताएँ ‘ का स्वागत करता हूँ तथा कविताओं की पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त राष्ट्र को समर्पित भावना का हृदय से अभिनंदन करता हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि राजावतजी की यह पुस्तक पाठकों का कंठहार बनेगी तथा राष्ट्रवाद का पथ प्रशस्त करते हुए साहित्य की श्रीवृद्धि करेगी। मैं अपनी बात की इति राजावतजी को समर्पित इस कुंडलिया के माध्यम से करता हूँ:-
*निर्मल मन की आत्मा, राष्ट्र प्रेम* *संदेश* ।
*मधुरिम वाणी आपकी, गीता के* *उपदेश* ।
*गीता के उपदेश, समर्पित हृदय* *भावना* ।
*अतिशय मंगल भाव, सभी को प्रीत*कामना* ।
*कहे हृदय से ‘अश्रु’, काव्य की मधुमय*हलचल* ।
*देती अति आनंद, हृदय को करती*निर्मल* ।।

अशोक अश्रु विद्यासागर
संपादक: संस्थान संगम पत्रिका
आगरा (उ.प्र.)
मो.9870986273

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