उस जनपद के कवि त्रिलोचन
कवि त्रिलोचन का जन्म तो सुल्तानपुर (उ. प्र.) के एक छोटे से गांव में हुआ था, किन्तु अपने लेखन के माध्यम से धीरे-धीरे वे देश के एक महत्वपूर्ण हिन्दी कवि हो गए। त्रिलोचन के नाम से देशभर में ख्याति प्राप्त कवि का मूलनाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर एवं लाहौर विश्वविद्यालय से संस्कृत में ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त की।
गद्य और पद्य में समानरूप से सक्रिय त्रिलोचन जी नें कई किताबें लिखी, पत्रकारिता में सक्रिय रहते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, कई सहित्यक व सांस्कृतिक मंचों से जुड़े रहे।
सुप्रसिद्ध कवि, कला-आलोचक एवं मध्यप्रदेश शासन के तत्कालीन सांस्कृतिक सचिव अशोक वाजपेयी ने सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजनपीठ, उज्जैन में प्रेमचंद पीठ, और भोपाल में निराला पीठ करवाई थी। मुक्तिबोध सृजन पीठ के त्रिलोचन जी कई वर्षोंं तक अध्यक्ष रहे, तब सागर विश्वविद्यालय के कुलपति थे शिवकुमार श्रीवास्तव, जो संभवतः विश्वविद्यालय के प्रथम बैच के छात्र थे और स्वयं एक बढ़िया साहित्यकार थे। पीठ में त्रिलोचन जी समय-समय पर विभिन्न आयोजन करते रहे और स्वयं भी आमंत्रित करने पर गोष्ठियों और साहित्यिक समारोह में जाते रहे। स्थानीय और बाहर के कवि उनके पास आते, अपनी रचनाऐं सुनाते और आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन पाते।
२०१७ त्रिलोचनजी का जन्मशती वर्ष था। देशभर में उनपर केंद्रित आयोजन हुए। जिस महान कवी त्रिलोचन का वर्षों सान्निध्य प्राप्त हुआ, सागर का साहित्य-संसार उन्हें कभी नहीं भूल सकता। मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता।
भाषाओं के अगम समुद्र में अवगाहन करने वाले कवि त्रिलोचन अमर रहेंगे अपने सॉनेटों के माध्यम से। कवि केदारनाथ सिंह के अनुसार- “सृजनात्मक अनुशासन का सबसे विलक्षण और रंगारंग रूप उनके सॉनेटों में दिखाई देता है। शब्दों की वैसी मितव्ययिता और शिल्पगत कसाव उनके सॉनेटों में मिलता है वैसा निराला को छोड़कर आधुनिक हिन्दी में अन्यत्र दुर्लभ है।”
केदार जी के इस कथन से पूर्ण सहमति रखते हुए, त्रिलोचन जी को जितना जाना और समझा है उस आधार पर लिखने का प्रयास कर रहा हूँँ। एक अत्यंत सहज और सरल किन्तु भाषा के प्रति पूर्ण सजग कवि त्रिलोचन से मिलकर और उन्हें पढकर प्रभावित हो जाना एक स्वाभाविक परिणति है।
“गुलाब और बुलबुल” संग्रह के में संकलित एक ग़ज़ल के एक शेर में वे कहते हैं-
“रंग कुछ ऐसा रहा और मौज कुछ ऐसी रही,
आपबीती भी मेरी वह समझे कोई वाद था।”
नागार्जुन,शमशेर बहादुर सिंह एवं त्रिलोचन आधुनिक हिन्दी कविता की प्रगतिशील धारा के तीन स्तम्भ हैं।फिर भी त्रिलोचन जी साहित्य में वादों के विवाद से परे रहकर रहकर अनवरत यात्रा करते रहे ।जीवन के संघर्षों में तपकर कभी बनारस,कभी दिल्ली तो कभी सागर को अपना कर्मक्षेत्र बनाते रहे। त्रिलोचन जी को उनके विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके सॉनेटों के संग्रह “ताप के ताये दिन” के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा “फूल नाम है एक” संकलन के लिये मध्यप्रदेश सरकार द्वारा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान प्रदान किया गया । पुरस्कारों और प्रशस्तियों के बारे में उनका कहना था-” रचनाकार की हैसियत से पुरस्कार का उतना ही महत्व है कि वो किसी रचना या रचनाकार को सम्मानित करता है तथा यह सम्मान अन्य किसी का अपमान नहीं है।”
कोई नई अनुभूति उन्हें पुरस्कार प्राप्त कर नहीं हुई ,वे सदा रचना कर्म को ही वरीयता देते रहे ।लिखने का अभ्यास हो जाने पर बारह वर्ष की आयु से ही लिखना प्रारम्भ कर देने वाले कवि त्रिलोचन का प्रथम काव्य संग्रह “धरती” वर्ष 1945 में प्रकाशित हुआ था।फिर “गुलाब और बुलबुल” गजल संग्रह और “दिगंत” सॉनेट संग्रह प्रकाशित हुए।उसके बाद लगभग तीन दशक तक कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ ।फिर आये
“शब्द”, ” उस जनपद का कवि”,”तुम्हे सौंपता हूं”,”अरधान”,”चैती”,”कुछ कहनी कुछ अनकहनी” है इत्यादि कई काव्य संकलन।उन्होने अपने विभिन्न संग्रहों को समकालीन कवि डॉ राम विलास शर्मा,आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री एवं अग्रज कवि केदारनाथ अग्रवाल को समर्पित कर उनके प्रति आदर भाव व्यक्त किया है।उनसे मिलने वाले सभी साहित्यकार और साहित्य-अनुरागी उन से सदा अपनापन पाते रहे हैं।त्रिलोचन जी के ही शब्दों में -” शमशेर,राम विलास शर्मा ,जगत शंखधर ,केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन आदि से मुझे असीम आत्मीयता मिली है।”
सागर में खोया-पाया का उल्लेख करते हुए वे अपनी जीवन-सन्गिनी से बिछोह को अक्सर याद करते थे।अपनी एक रचना में वे लिखते हैं-
“गये दिनों के साथ कहां क्या मैने त्यागा
मेरा जी ही बात जानता है यह पूरी
कहां-कहां थे स्वप्न और कितनी थी दूरी
उनसे मेरी। लाख-लाख भय लेकर जागा
जीवन के दिन रात एक कर दिये,न मांगा
कभी किसी से प्राप्य,कौनसी थी मजबूरी
जिसने सारी दौड़-धूप हर बार अधूरी
छुड़वा दी है।हे प्राण आज का भी दिन भागा,
इससे अपने आप कुछ नहीं मैं ले पाया।
अन्धकार में याद आ रही हैं वे बातें
जिनसे कोई काम किसी दिन जग में अपना
नहीं बना, आवाज खो गई बनकर छाया।
लेकर दीपालोक दिखाएंगी क्या रातें
स्मृति से भी छूट गया देखा था जो सपना।”
हिन्दी भाषा में कवि त्रिलोचन और सॉनेट एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं।सॉनेट मूलत: यूरोपियन डिससिप्लैन है।स्पेनिश,इटालियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं में सॉनेट वीर-गाथा काल से लिखे जाते रहे हैं। त्रिलोचन जी ने रोला छन्द के साथ सॉनेट के प्रयोगात्मक संयोग से हिन्दी कविता की ।उन्होने जिस क्षमता और सामर्थ्य का आविष्कार किया है वह उन्हे स्पेनिश के लोर्का सरीखे कवियों का दर्जा देता है,जिन्होंने अपनी कविता को 12 वीं शताब्दी के पुराने छन्द से आधुनिक बनाया और एक योरोपीय भाषा में गजलें एवं लोरियाँ भी लिखीं।सॉनेट में भी त्रिलोचन जी ने सिडनी,शेक्सपिअर, मिल्टन और कीट्स आदि महान कवियों की शैलियों को अपना कर चार/पांच प्रकार से पद्य रचना की है ।तुलसीदास से वे भाषा सीखने की बात करते हैं और गालिब से भी गहरायी तक प्रभावित हैं ।डॉ चन्द्र बली सिंह के अनुसार अंग्रेजी के अधययन से त्रिलोचन ने सॉनेट की विशेषताओं को पहचाना और उसकी शक्ति और सीमाओं का ज्ञान प्राप्त किया।एक विजातीय यूरोपियन अनुशासन में रोला छन्द में की गई त्रिलोचन की रचनायें भाव तथा शिल्प दोनों के स्तर पर अप्रतिम और अद्भुत हैं।उनके प्रकाशित सॉनेटों की संख्या छह सौ से कुछ अधिक है और उनके ही अनुसार अप्रकाशित सोनेतों की संख्या कुछ सौ अवश्य होगी लेकिन चूंकि उनके पास उपलब्ध नहीं थे इसलिये वे उन्हे नष्ट प्राय: मानते थे।त्रिलोचन जी के कुछ सॉनेट कवि नागर्जुन और कुछ उनके स्वयं के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हैं।उन्होने आचार्य विश्व नाथ प्रसाद मिश्र,सुब्रमणियन भारती,रवीन्द्र नाथ टेगोर,मायकल मधुसूदन दत्त,शंकर देव,मैथिलीशरण गुप्त ,मुक्तिबोध,शमशेर और क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम पर भी लिखे हैं।कवि नागार्जुन का कहना है कि भाषा की ताजगी और आंचलिक अबधी के रचनात्मक प्रयोग में त्रिलोचन अद्वितीय हैं।और उनकी इन्ही विशेषताओं के कारण वे उन्हें जायसी का उत्तराधिकारी मानते हैं।परन्तु त्रिलोचन किसे अपना उत्तराधिकारी मानते थे यह पुछे जाने पर वे बस मुस्कुराकर मौन रह जाते थे ।
नई कविता में “चम्पा”, “सहस्त्रदल कमल ” एवं “नगई महरा ” जैसी महत्वपूर्ण कवितायें लिखनेवाले त्रिलोचन जी ने एक बिल्कुल स्पष्ट दृष्टि रखते हुए गद्य और पद्य दोनों में बहुत लिखा है ।गद्य-कविता के भविष्य के बारे में पुछे जाने पर त्रिलोचन जी का कहना था_
” अपनी भाषा के प्रति तो लेखक का अनुराग भी मैने नहीं देखा ।अपनी भाषा के प्रति लेखक को जब अनुराग होगा तो वह जो लिखेगा गद्य में या पद्य में ,उसे पढने वाले पढेंगे।”
पिछ्ले कुछ वर्षों से हिन्दी व ऊर्दू के बीच भाषायी दरार के लिये वे” हिन्दी और ऊर्दू “की मानसिकता के लिये दोषी मानते थे। उनके अनुसार बुनियादी तौर पर दोनों भाषाओं में कोई अन्तर नहीं है।
त्रिलोचन जी को अपने कविता संग्रहों में “शब्द” सर्वाधिक प्रिय था ।किसी बड़े रचनाकार से इस प्रश्न का उत्तर पा सकना कि उसे कौन सी रचना सर्वाधिक प्रिय है ,कठिन है ।फिर भी त्रिलोचन जी को अपनी जो रचनायें सर्वाधिक प्रिय थीं उनमें से “जल के हिल जाने पर जैसे तल की छाया हिल जाती है” एक है।
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता की ही तरह त्रिलोचन जी की कथा अनन्त है।बहुत विस्तार में न जाते हुए त्रिलोचन जी को अपनी शृद्धा व्यक्त करता हूं “अरधान ” में प्रकाशित उनकी ही एक रचना से-
“और थोड़ा और आओ पास
मत कहो अपना कठिन इतिहास
मत करो अनुरोध , बस चुप रहो
कहेंगे सब कुछ तुम्हारे खास।
-वीरेन्द्र प्रधान
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