संदेशो इतना कहियो जाय : सुभदा मिश्र
वरिष्ठ कथाकार शुभदा मिश्र का कहानी संग्रह ‘संदेशो इतना कहियो जाय’ में 1978 से लेकर 2014 तक की दीर्घ अंतराल की कहानियां हैं। सभी कहानियां आकर में छोटी हैं। अधिकांश कहानियाँ स्त्री जीवन पर ही केंद्रित हैं। कहानियों में स्त्री-जीवन की धूप-छाँह के कई रंग हैं। परिवेश साधारण कामकाजी महिला से लेकर उच्च आर्थिक वर्ग तक के महिलाओं का है। फिर भी मध्यमवर्गीय आर्थिक स्तर की रोजगार के लिए संघर्षरत स्त्री की छवि की अधिकता है।
संग्रह में स्त्री का एक रूप संघर्ष का है,जो परिस्थितिवश ‘बेसहारा’ होने अथवा पारिवारिक उपेक्षा के कारण रोजगार(नौकरी) की तलाश में है। इस प्रक्रिया में अपनों की उपेक्षा, भ्रष्टाचार, पितृसता कई तरह की बाधाएं आती हैं। ‘अपशकुन’ की नमिता समाज मे पितृसत्तात्मक मूल्यों में पीस रही है। उसके अपने तक उसके स्त्री होने को अलग ढंग से देखते हैं, उसकी भावनाओं को नहीं समझते। अस्मिता की तो बात ही क्या!
‘शिखरों का सफ़र’ में भी एक भाई तक बहन के प्रति संवेदनशील नहीं है, अधिकार की तो बात ही जाने दो। मगर इसमे स्त्री संघर्षशील है,यह महत्वपूर्ण है।उसे अपने असंवेदनशील भाई के बैसाखी की जरूरत नहीं है।
‘अजेया’ के गायत्री का व्यक्तित्व उदात्त है।वह दुःख सहकर भी जीवन से हारती नहीं बल्कि बल्कि हर स्थिति में खुश रहने का राह निकालने की कोशिश करती है।
कहानियों का एक स्तर ऐसा है जिसमे स्त्रियां पितृसत्ता में घुट रही हैं, छटपटा रही हैं, और उसे अपनी नियति मान बैठी हैं। इस तरह उनमें अपनी अस्मिता के प्रति चेतना का अभाव दिखता है। ‘आजादी मुबारक’ की स्त्री पितृसत्ता में दम तोड़ती अब तक अपना रुदन रोकने की कोशिश कर रही है। ‘आ ही गयो री फागुन त्यौहार’ की ‘वह’ भी सनकी पति को किसी तरह बर्दाश्त कर रही है। ‘,दृष्टिदोष’ के पुरूष का भी यही हाल है।’आगामी अतीत’ में जैसे पुरूष ‘निर्दोष’ हैं और स्त्री ही स्त्री की दुश्मन हैं।
इस तरह की कहानियां कहीं नहीं ले जाती न ही पाठक की सम्वेदना को झकझोरती हैं। आश्चर्य लगता है कि इन स्त्रियों के अंदर कहीं प्रतिरोध नहीं है,बल्कि एक हद तक पितृसत्ता के प्रति स्वीकारबोध है। ‘दृष्टिदोष’ की स्त्री को दुःख इस बात का है कि उसका पति उस “सच्चरित नारी” यानी पास की पत्नी को नहीं देख पा रहा है, न कि इस बात की कि उसकी दृष्टि सामंती है। ‘आगामी अतीत’ पितृसत्ता की आलोचना कम स्त्री को ही स्त्री का ‘दुश्मन’ दिखाया गया है और बहू को “घरफोड़ू कुलच्छनी” कहा गया है।
कहने का मतलब यह नहीं कि स्त्रियों में खराबी नहीं होती या पारिवारिक विघटन में उनकी कोई भूमिका नहीं हो सकती।होती हैं; ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं। मगर उल्लेखित कहानियों में ऐसा नहीं हो सका है। यहां एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि उपर्युक्त कहानियों में अपने परिवेश में जो देखा गया उसका चित्रण किया गया है। मगर हमारा मानना है कि कहानियां अनुभूत का चित्रण भर नहीं होती, कथाकार उसका ‘सामाजिक उपादेयता’ यानी पाठक का परिप्रेक्ष्य अवश्य देखता है।यानी उस कहानी को पाठक क्यों पढ़े? इसलिए हर अनुभव कहानी रूप ले यह जरूरी नहीं होता।
कुछ कहानियों में स्त्रियों के अनावश्यक प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या,दिखावा,भ्रष्टाचार जैसे मानवीय कमियों का भी चित्रण हुआ है तो कहीं पुरुष वर्ग के इन प्रवृत्तियों का।
‘नासेह निकल गए वो तो..’ बाप-बेटे डॉक्टर के मूर्खतापूर्ण और बोझिल बकवासों का उचित प्रतिवाद है। ऐसे चरित्र हमारे आस-पास अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ते हैं। अजीब लगता है कि मूर्खता में गजब का ढिठाई होता है।
‘आज का शिक्षक’ में भी ‘उच्चवर्गीय’ घाघपन का उचित प्रतिवाद है।ऐसे लोगों की सारी ‘शराफत’ और ‘अभिजातपन’ अपने लाभ के लिए होता है। जैसे ही इनकी हक़ीकत सामने आने लगती है ये तिलमिलाने लगते हैं और इनका वास्तविक रूप सामने आ जाता है।
‘धराशायी’ में इसी तरह मध्यमवर्गीय स्त्रियों के आपसी चुगलखोरी और समय की बर्बादी का चित्रण है। ‘अव्यक्त क्रंदन’ प्रभाव नहीं छोड़ पाती।एक-दो कहानियों में ग़रीब स्त्रियों का चित्रण है। ‘बाज़ार’ की जमुना और उसकी बेटी जो मजदूर वर्ग से हैं, का फूल ‘चुराना’ मजबूरी है मगर ‘चौधरी मैडम’ उसकी बेटी के लिए ‘बाज़ार’ की जरूरत।इसी तरह ‘कन्हैया’ द्वारा भोजन की चोरी अभाव जनित है। ये कहानियां अच्छी बन पड़ी हैं। ‘संदेशो इतना कहियो जाय’ में किशोर मन की सहज भावना जो निष्कलुष है,का मार्मिक चित्रण है।
‘ड्यूटी’ महत्वपूर्ण कहानी है जिसमे ‘जन जनप्रतिनिधियों’, ‘अधिकारियों’ की वीआईपी कल्चर और सुविधाभोगी प्रवृत्ति के कारण आमजन को कैसे परेशानी होती है,और खासकर छोटे कर्मचारियों को सामंजस्य बनाने में कैसे दिन-रात एक करना पड़ता है,को एक सिपाही की ड्यूटी की माध्यम से दिखाया गया है।’भाई-बहन का प्रेम’ नामानरूप कहानी है। ‘तुसी ग्रेट हो जी’ में पंडितजी के ग़रीबी की मदद कहानी को थोड़ा रोचक अवश्य बना देती है।
मगर कई कहानियों से गुजरते एक बात का बराबर अहसास होता है कि इनमें समस्याओं की जटिलता का तनाव नहीं उभर सका है।यानी कथाकार जिन समस्याओं को उठाती है,वे यद्यपि सामान्य जीवन के ही हैं, तथापि उससे जनित द्वंद्व का निराकरण बेहद हल्के ढंग से हुआ है जो कई बार कहानी की प्रभाविकता को कम करती है। मसलन ‘तुसी ग्रेट हो जी’ और ‘ड्यूटी’ कहानी को ही लिया जा सकता है।’ड्यूटी’ का अंत जिस हास्यबोध से ख़त्म होता है वह समस्या के तनाव को ख़त्म कर देता है।तुसी ग्रेट हो जी’ में सामंती सोच के पति का ‘हृदय परिवर्तन’सहज नहीं लगता।
इस तरह संग्रह में कई रंग की कहानियां हैं।कथावस्तु में विविधता है। एक पाठक की दृष्टि से हमे लगता है कि कुछ कहानियों की संगति ठीक बन पड़ी है, कुछ की नहीं। दूसरी बात कहानियां काफ़ी अंतराल की हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से अपने देशकाल से प्रभावित हैं। बहरहाल एक संग्रह से कथाकार के रचनादृष्टि का समग्र मूल्यांकन सम्भव भी नहीं होता।
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पुस्तक- संदेशो इतना कहियो जाय
कथाकार- शुभदा मिश्र
प्रकाशन- समय प्रकाशन, नयी दिल्ली
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[2021]
#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320