कविता – मानवता
इस दहशतगर्द मौसम में
कुत्ते भौंकते तो है
जबकि आदमी
सभ्यता का लबादा ओढकर
दडबे में हो जाता है कैद
और उसकी चेतना भी
हो जाती है शब्द विहीन
लगता है जैसे सदियों से बंद है
उसके अंतर्मन की खिडकियां और कपाट
इसीलिए प्राणवायु भी
द्वार थपथपाकर लौट जाती है
‘वसुधैव कुटुंबकम ‘तो सभी को
पाठ्य -पुस्तकों में रटाया गया है,
फिर भी आदमी अपने अघोषित वृत्त से
बाहर नहीं निकलता।
सूरज बिला नागा बिखेरता है स्वर्ण रश्मिया’
और चांद भी-
सागर की मचलती लहरों की मानिंद
मुस्कराता है —– —– हर रात।
पक्षीगण हर ऋतु में
गुंजाते है मधुर कलरव
बिना राग-द्वेष के —–
और आदमी ,पडोसी की राम-राम का
बेमन से देता है जवाब।
किंतु ,जब चौकीदार साबजी का सलाम ठोंकता है
तब भी वांछित शब्द कंठ में हो जाते है
अवरुद्ध —— — –
कि कहीं कुछ मांग न बैठे ।
जब कभी चौकीदार अपने घर की ओर बढता है
गली का कुत्ता उसे देख
आंतरिक खुशी दर्शाता है।
किंतु अपार भूख से उसकी अंतडिया’
हिलने लगती है,
तब झट मैले – कुचैले कोट की जेब से
बासी रोटी का टुकडा उसकी ओर उछाल देता है।
इस दरमियान कुछ पक्षी मधुर कलरव
गुंजाते हुए वहां बैठ जाते है — — –
फिर भी कुत्ता झपट्टा नहीं मारता,
रोटी छोड़कर – —
शांत भाव से कहीं और निकल जाता है।
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उमाकांत खुबालकर दिल्ली