November 22, 2024

आलोचक राजेश्वर सक्सेना और हमारा समय

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प्रगतिशील आलोचना हमेशा अपने समय के संकटो,चुनौतियों का सामना करती रही है। स्वतंत्रता पूर्व उसने सामन्तवादी-पूंजीवादी मूल्यों के साथ-साथ साम्राज्यवाद का भरसक प्रतिरोध किया। स्वतंत्रता पश्चात के दौर में जहां इन मूल्यों के अवशेष बांकी रहें,वहीं साम्राज्यवाद विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से अपना हित साधता रहा। उस दौर में भी प्रगतिशील आलोचना प्रतिपक्ष के रूप में खड़ी रही।

कहना न होगा ये प्रतिगामी मूल्य जहां राजनीति और अर्थव्यवस्था में मुखर रूप से सक्रिय थे,वहीं कला-साहित्य पर भी इनका असर था,और इन मूल्यों के प्रतिनिधि वहां भी सक्रिय रहे हैं।व्यक्तिवाद,कलावाद, कुलीनतावाद,छणवाद आदि कई रूपों में ये शक्तियां सक्रिय थीं ,और आज भी सक्रिय हैं।प्रगतिशील लेखकों-आलोचकों की भी सशक्त प्रतिरोधी पीढ़ी रही है जिन्होंने इनका बराबर प्रतिवाद किया और प्रगतिशील साहित्य परम्परा की केन्द्रीयता को बनाये रखा। इस सशक्त परम्परा में शिवदान सिंह चौहान,रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध,नामवर सिंह, मैनेजर पांडे जैसे आलोचक हुए है,और इस परंपरा में आज भी हमारे प्रगतिशील आलोचक सक्रिय हैं और समकालीन परिस्थिति के चुनौतियों से मुठभेड़ कर रहे हैं। इस गौरवशाली परम्परा में डॉ राजेश्वर सक्सेना का महत्वपूर्ण स्थान है।

मगर इधर पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक में विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव आया,जिसने समाज के प्रगतिशील ढाँचा,जीवन मूल्य, और साहित्य के समक्ष बड़ी चुनौती प्रस्तुत किया ।इस बदली परिस्थिति में न केवल प्रतिक्रियावादी ताकतें मुखर हुई हैं,अपितु प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाए बहुत से अवसरवादी भी बेनकाब हुए।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि प्रगतिशील राजनीति और रचनाधर्मिता के समक्ष प्रस्तुत संकट से आँख चुराई जाय, बल्कि उसका विश्लेषण कर ,कारणों की पड़ताल कर,उससे निज़ात के उपाय ढूंढे जाना चाहिए।यह जितना राजीनीति के लिए जरूरी है उतना ही साहित्य के लिए भी।ज़ाहिर है साहित्य के किसी आलोचक के लिए यह कार्य ‘विशुद्ध साहित्य’ तक सीमित रहने से सम्भव नहीं हो सकेगा, क्योंकि साहित्य की समस्याओं की जड़े कहीं न कहीं समाज मे ही होती हैं।इसलिए आलोचक को इसकी पड़ताल मानविकी के तमाम अनुशासनों यथा राजनीति,इतिहास,दर्शन, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र,भाषाविज्ञान के क्षेत्र में जाकर करनी होगी।इधर तो विज्ञान के उपलब्धियों तक की भाववादी व्याख्या की जाने लगी है,ऐसे में एक आलोचक से दायरे के विस्तार की अपेक्षा और बढ़ जाती है।

कुल मिलाकर आलोचक को चिंतक की भूमिका निभानी होगी। ऐसा नहीं कि हमारे पुरोधा इससे अनभिज्ञ रहे हैं।पिछली शताब्दी में रामविलास जी ने बहुत हद तक यह कार्य किया।

डॉ राजेश्वर सक्सेना के कार्य को हम इसी परम्परा में देखते हैं। जिस तरह से उन्होंने साहित्यालोचन को दर्शन,मनोविज्ञान,भाषाविज्ञान,मानव विज्ञान, भौतिक विज्ञान के अधुनातन शोध के निष्कर्षों से समृद्ध किया है वह अभूतपूर्व है।जितना उन्हें मार्क्सवाद के क्लासिकल साहित्य का ज्ञान है उतना ही बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से आज तक सक्रिय मार्क्सवादी विद्वानों और उनके विरोधियों का अध्ययन है।

इसलिए पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक में समाजवादी व्यवस्था के ‘ध्वस्त’ हो जाने को वे यांत्रिक ढंग से नहीं देखते और उसकी गहरी पड़ताल करते हैं।इस क्रम में वे क्लासिकल मार्क्सवाद को भी आलोचनात्मक ढंग से देखते हैं और वर्तमान परिस्थितियों के चुनौतियों के अनुरूप नए बौद्धिक औजारों की तलाश करते हैं।कहना न होगा कि वे मार्क्सवाद के द्वंद्ववादी चिंतन से कभी दूर नहीं हटते और बार-बार उसके महत्व और आवश्यकता को रेखाँकित करते हैं।

नब्बे के दशक में समाजवादी मॉडल के ‘ध्वस्त’ होने से अर्थव्यवस्था में जहां निजीकरण,मुक्त व्यापार,उदारीकरण कुल मिलाकर कार्पोरेट पूंजीवाद का जो दौर आया, आज वह चरम पर है।इस अवधि में साम्प्रदायिक राजनीति के उभार को इसके अनुषंगी के रूप में देखा जाना चाहिए।पूर्ववर्ती शासन के अंतर्विरोधों का लाभ उठाते तात्कालिक अनिश्चतता को इन्होंने अपने पक्ष में भुनाया।ध्यातव्य है कि इनके ‘धार्मिक मूल्य’ कभी इस कार्पोरेट पूंजीवाद से टकराते नहीं बल्कि दोनो में सहयोगी सम्बन्ध है,जो दोनो के स्वार्थ के हित मे है।डॉ सक्सेना के शब्दों में कहें तो “वक्तृता धुर-राष्ट्रवाद की किंतु क्रिया(व्यवहार) भूमंडलीय बाज़ारवाद की -यह विरोधाभास है।”(आलेख बाज़ार का मुलतत्ववाद)

इस फंडामेंटलिज़्म का उद्देश्य डॉ सक्सेना जे.ई. लेवेलिन को कोट कर स्प्ष्ट करते हैं

“मूलतत्ववाद क्या है- जे. ई. लेवेलिन के मुताबिक ‘फंडामेंटलिज़्म’ एक सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन है, जिसका मकसद आधुनिकता पूर्व युगों और धर्म
के मूल तत्वों की ओर लौटना नहीं समझना चाहिये। असल में यह मौजूदा या समकालीन धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक राजनीति से पैदा हुई चुनौतियों के खिलाफ़, उनका मुकाबला करने के लिये धर्म, परम्परा, अतीत और इतिहास का इस्तैमाल करता है।'”(वही)

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इस कार्पोरेट पूंजीवाद की नयी व्यवस्था ने दर्शन,समाज,भाषा,साहित्य में अपने औचित्य के लिए दर्शन भी गढ़ें। उत्तर आधुनिक चिंतन के मूल्यों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। वे यह भ्रम फैलाने में सफल रहे कि अब ‘इतिहास का अंत हो चुका है’ ‘ग्रैंड नैरेटिव(महाख्यान) का सिद्धान्त ख़त्म हो गया’ अब सत्य-असत्य कुछ भी नहीं सब ‘पाठ’ है। कुल मिलाकर अब मनुष्य के सामूहिक मुक्ति का कोई स्वप्न पूरा नहीं हो सकता।

इस तरह के मूल्यों को फैलाने में वे सफल रहे हैं।ज़ाहिर है इसका सामना सरलीकृत ढंग से द्वंद्ववाद के केवल पुराने औजारों से नहीं किया जा सकता।बदली परिस्थिति में प्रतिपक्ष के ज्ञान मीमांसा के भाषायी तर्कों की काट और उस दर्शन के निहितार्थों को खोलकर ही किया जा सकता है। कहना न होगा ऐसे लोग कम है। डॉ राजेश्वर सक्सेना उनमें से एक हैं।

उत्तर आधुनिक चिंतन के चुनौतियों का सामना वे ज्ञान मीमांसा के बहुत सारे स्तर पर जाकर करते हैं।उस चिंतन का रेशा-रेशा खोलते हैं।ज्ञान के विविध अनुशासनों में जाकर तर्क जुटाते हैं।यही कारण है कि उनकी भाषा बहुत आसान नहीं रह जाती।वे जिस स्तर का अध्ययन करते हैं वृहत हिंदी सामान में उस स्तर का चिंतन और बहस नहीं हो पाती इस कारण उन्हें बहुत से शब्द स्वयं पढ़ते है, इसलिए सामान्यतः उस चिंतन से अनिभिज्ञ पाठक के लिए वे कठिन लगते हैं। यानी एक तरह से वे विषय की मांग हैं, और उन विषयों पर वृहत चर्चा हो तो धीरे-धीरे पाठक के शब्दकोश के हिस्से हो सकते हैं।

ऐसा सर्वत्र है भी नही उनकी प्रारंभिक छः-सात किताबों में ऐसा अनुभव नहीं होता,या अभी कुछ समय पूर्व का ‘हमारा समय और गांधी-नेहरू होने का अर्थ’ जैसे आलेखों में। बाद की उत्तर आधुनिक चिंतन वाली किताबों में ऐसा है तो वह एक तरह से विषय की मांग जनित विवशता भी है।

जैसा कि कहा जा चुका है आज का हमारा समय कार्पोरेट पूंजीवाद का चरम और तद्जनित छद्मराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता का भी चरम है। स्वाभाविक रूप से इनका प्रभाव कला,सहित्य,इतिहास,शिक्षा और उनसे सम्बद्ध संस्थाओं पर पड़ रहा है। और एक हताशा का सा वातावरण दिखाई देता है,ऐसे में डॉ सक्सेना के लेखन से बहुत कुछ प्रेरणा लिया जा सकता है।

डॉ सक्सेना की पद्धति यह है कि वे समस्या(यथार्थ)को बिना लाग लपेट के पहले प्रस्तुत कर देते है

“कह सकते हैं कि आज का भारत कारपोरेट भारत
है। भारत में देशी और विदेशी वित्तीय पूंजी के उन्मुक्त रूप से प्रवाहन का, पूंजी के “खेल सिद्धांत” का मनमाने ढंग से प्रयोग होता दिखाई देता है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि भारत आज मुनाफा कमाने के विचार में है। भारत आज पूरी दुनिया में दुकानदारी करने वाला दुकानदारों का एक राष्ट्र है। ऐसे में अब एक भारतीय की पहचान एक उद्यमी, एक व्यापारी और एक उपभोक्ता के रूप में होने लगी है। ऐसे में नागरिक समाज का कोई विचार बाकी रह गया नहीं दिखाई देता, सब कुछ एक उपभोक्ता समाज के लिये का होकर रह गया है। आज की भारतीय संस्कृति एक उपभोक्ता समाज की संस्कृति है। उन्मुक्त बाज़ारतंत्र की संस्कृति है।कारपोरेट प्रबंधन की संस्कृति है। ऐसी संस्कृति में ज्ञान कीअनुभववादी तर्कपद्धति की कहीं कोई ज़रूरत ही नहीं बची है। इतिहास की, विवेक और तर्क की हर स्मृति विलुप्त हो गयी है। बल्कि यह कहना अधिक ठीक लगता है कि तर्क और विवेक की हर परम्परा को विलुप्त कर दिये जाने की एक रैडीकल रणनीति तैयार कर ली गयी है। मतलब यह कि जीवन सम्बंधों की हर वस्तुपरकता को, वस्तुपरक विचारशीलता को भंग कर दिया गया है, विखंडित कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि अब किसी भी तरह के नये रैफ्लैक्शन का संज्ञान लेना बंद सा हो गया है।”(हमारा समय और गांधी नेहरू होने का अर्थ)

मगर इन व्यक्तव्यों मे ही इनसे निजात के तर्क छुपे होते हैं। मसलन इसी अंश में क्रिया ‘कर ली गई है’, ‘कर दिया गया है’ आदि से स्पष्ट है प्रतिक्रियावादी शक्तियां और उनकी ज्ञान मीमांसा ऐसा कर रही हैं तो मुक्ति इन प्रयासों को असफल करने में है।

आज सत्ता गांधी-नेहरू के योगदान को नकारने यहाँ तक कि उन्हें नष्ट कर देने(इतिहास से मिटा देने) के तमाम प्रयास कर रही है,ऐसे में डॉ सक्सेना उनके अंतर्विरोधों को रेखांकित करते उनका महत्व स्वीकार करते हैं

“गांधी की सकारात्मक और रचनात्मक पहचान और
उनकी ऐतिहासिक भूमिका इस तथ्य में है कि गांधी ने पहली बार जनसमूहों को नये रैफ्लैक्शन्स में उतार दिया और सजगता प्रदान की। मतलब यह कि जनसमूहों को पहली बार वस्तुपरक अर्थ का प्रत्यक्ष कराया। इस तरह गांधी ने पहली बार राष्ट्रव्यापी जनता की राजनीति के विचार को पैदा किया ।”

“तो हमारी दृष्टि में नेहरू होने का अर्थ, मूलतः और
मुख्यतः ज्ञान की अनुभववादी पद्धति से सम्बद्ध है। ज्ञान की यह अनुभववादी पद्धति, तर्कपद्धति क्या है, इसके इतिहास पर और इसके प्रकारभेदों पर नहीं जायेंगे। एक अर्थ में यह आधुनिक युग की औद्योगिक क्रान्ति के ज्ञान-सिद्धांत से, जीवन की नई वस्तु के नये नये रैफ्लैक्शन्स के संज्ञान-गठन से सम्बद्ध दिखाई देती है। यह आधुनिक युग के प्राकृतिक विज्ञानों और समाज विज्ञानों के, मानविकी के हर नये शोध और उसके नवगठन में पहलकारी दिखाई देती है। सामाजिक विज्ञानों का तो अस्तित्व ही ज्ञान की अनुभववादी तर्कपद्धति के प्रयोगों वाला रहा है। एक मोटे से अर्थ में इसे तथ्यगतिक के वस्तुपरक अर्थग्रहण की तर्क पद्धति भी कहा जा सकता
है। इस तर्कपद्धति के द्वारा, पहली बार, स्वर्ग का विचार
धरती के लौकिक क्रियाकलापों के सामने स्वप्निल सा दिखाई पड़ने लगता है। इसी तरह धर्म का विचार कानून के सामने और धर्मशास्त्र का विचार राजनीति के सामने पीछे छूटता हुआ सा दिखाई पड़ने लगता है।”

“जहाँ तक नेहरू के अनुभववादी तर्क का सवाल है,
वह द्वन्द्ववादोन्मुख था, वह मूल्यबोध या मूल्यचेतना वाला था। और जहाँ तक मूल्य-रचना का सवाल है, वह दिक्-काल सापेक्ष तथ्य-गति की दिक्-काल सापेक्ष जीवन-सम्बंधों के तथ्यगतिक की चेतना, चैतन्य, क्वालिया के अर्थ वाले होते हैं।”

“अतः कांग्रेसमुक्त भारत का संकेतार्थ है नेहरू, नेहरूवाद और नेहरूवियन विज़न से मुक्त भारत नेहरू के ऐसे विलोप की माँग क्या यहाँ के संवैधानिक प्रजातंत्र के विलोप वाली नहीं है? वह क्या भारत के आधुनिक और आधुनिकता के अर्थात् विवेक और तर्क की परम्परा के विलोप की माँग
नहीं है ?”

तमाम संकटों के बावजूद विकल्प मार्क्सवाद ही है। मगर मार्क्सवाद गतिशील दर्शन है

“आज मार्क्सवादी द्वंद्ववाद अपने क्लासिकल अर्थ को रूपांतरित करके नई कोर गणित की ज्ञान-पद्धतियों में व्याप्त हो गया है।(आलेख मार्क्सवाद : कल और आज)

“आज का मार्क्सवाद, कल के समाजवाद और साम्यवाद के क्लासीकल सूत्रीकरणों और उनके प्रबोधनयुगीन प्रयोगों से बहुत आगे निकल गया है।”(वही)

“किन्तु, जब हम आज के ऐतिहासिक परिदृश्य में क्लासीकल अर्थ वाली मार्क्सियन ज्ञानमीमांसा को
ही आधार मानकर चलते हैं, मार्क्स-एंगेल्स के फ़ार्म्युलेशन्स को ही आधार मानकर चलते हैं, बदली हुई भौतिक परिस्थिति में उन सूत्रों को रूपांतरित नहीं कर पाते हैं, तो फिर, वैसी हालत में मार्क्सवाद और मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद डाम्मैटिक्स की, मतांधता की परिधि में फंसकर रह जाता है, वह नई बोतल में पुरानी शराब’ की तरह रह जाता है।”(वही)

प्रतिक्रियावादी लेखन ‘विचारधारा के अंत’ की घोषणा करते हैं ,मगर उसकी भी एक विचारधारा है।

“आज प्रैग्मैटिक आवश्यकता से उत्प्रेरित होकर यह आवाज़ पूरे भूमंडलीय विचार और क्रिया के जगत में गूंज रही है कि ‘कोई विचारधारा नहीं होती है’, ‘विचारधाराओं का अंत’ हो गया है। तो फिर, जैसा कि ऊपर के परिच्छेदों में स्पष्ट किया है कि ऐसी आवाज़ तो एक दृष्टिकोण के रूप
में ‘स्वयं में विचार’ धारात्मक’ ही है।

किन्तु, कोई भी इस तरह का दृष्टिकोण जो प्रैग्मैटिक आवश्यकता से उत्प्रेरित होता है, जो स्वयं में विचारधारात्मक होता है, किन्तु यह साबित करने के लिये कि वह विचारधारात्मक नहीं है,उसे कांट के तर्कबुद्धिवाद से मदद लेनी पड़ती है।”(वही)

कुछ लोग मानव मुक्ति के सामूहिक दर्शन को केवल भाषायी तर्कजाल से विखंडित करते हैं

“इसी तरह, जो भी कोई यह कहता है कि आज कोई ‘ग्रैंड’ और ‘मैटानरेटिव’ नहीं बचा है, कोई ‘महान’ नहीं बचा है, वह एक कदम और आगे बढ़कर, प्रबोधन को भाषाविज्ञानी मोड़ की आंख से देखता है और जीवन द्रव्य के रिक्त वैखरीवाक्स्वरूप हो जाने का तर्क देता है।

कि प्रबोधन तो एक प्रोजैक्ट की तरह है और अब भौतिक जीवन का कोई बोध, बोध का जैविक नहीं बचा है, सिर्फ ध्वनि-विचार का वाक्, आकृतिमूलक बचा रह गया है, यह एक ऐसा उत्तरआधुनिक बेहूदापन है, जो ‘मानव’ को ‘मानव क्रिया’ को ‘मानवीय अर्थ’ को ही हास्यास्पद बना देता है”(वही)

विकल्प मार्क्सवाद ही है

“हमारा मानना है चूंकि, आज के विज्ञान ने और तकनालाजी ने अस्तित्व के जीवन के,जीवन सम्बंधों में अंतर्विरोध के गहनतम रूपों और अर्थों के द्वन्द्वात्मक विश्लेषण की, द्वन्द्वात्मक तर्क की एक पुख्ता ज़मीन पा ली है, इसलिये, यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है, मार्क्सवाद आज भी क्रान्तिकारी है, क्योंकि गुणात्मक में बने रहने का बीजसूत्र उसके पास है। मनुष्य के बारे
में हर रचनात्मक और सकारात्मक विचार, आज भी, मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद से ही उत्प्रेरित होता है। यह मार्क्सवाद है जो यथास्थितिवाद का विकल्प पेश करता है, उच्चतर रूपों में पूर्ण के समीपवर्ती विचार को पेश करता है।”(वही)

यहां डॉ सक्सेना के चिंतन के कुछ बिन्दुओ पर ही चर्चा की गई है। उनके रचना संसार में सहित्य, समाज,इतिहास और समकालीन समय के विडम्बनाओं और अंतर्विरोधों पर पर्याप्त चिंतन-मनन है। जरूरत है उसे पढ़ने-गुनने,वृहत पाठक वर्ग तक पहुंचाने की। उनके लिखे से प्रगतिशील चिंतन को आगे ले जाने और समाज में व्यापक बदलाव लाने के लिए बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

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● अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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