November 24, 2024

दाऊ रामचन्द्र देशमुख: कुछ अनछुए आत्मीय प्रसंग

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आम तौर पर किसी रचनाकार या सृजनशील व्यक्ति के बारे में जब सोचा जाता है तब यह मान लिया जाता है कि उनका कृतित्व ही सब कुछ है। लोग भी ये कहते हुए मिलते हैं कि ‘व्यक्तित्व क्या है? जो कुछ है वह तो कृतित्व ही है। रचनाकार का सबसे बड़ा परिचय उसका कृतित्व है। कृतित्व पर बात होगी तो व्यक्तित्व अपने आप सामने आ जाएगा।’

इन शब्दों के साथ ज्यादातर सृजनकर्मियों के व्यक्तित्व पर बातें हो ही नहीं पातीं। उनके व्यक्तित्व की अनेक निजी विशेषताओं और जटिलताओं की बारीक जांच-पड़ताल रह जाती हैं। अपने प्रेरक व्यक्तित्व से अनेक कृतियों को जन्म देने वाले महामनाओं का अति-विशिष्ट व्यक्तित्व धीरे-धीरे हाशिये में चला जाता है, रह जाती हैं उनकी अनमोल कृतियां- तब आने वाली पीढ़ी में समय-समय पर ये जिज्ञासाएं उठती रहती हैं कि इन दुर्लभ कलात्मक कृतियों के निर्माण करने वाले कलाकार का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा। क्या वे सुदर्शन व्यक्तित्व के थे? उनके आदत-व्यवहार में कौन सी अच्छाइयां या कमजोरियां रही होंगी। अपनी जीवन शैली में वे किस तरह के शौक पालते रहे होंगे? क्या उनके प्रणय संबंधों की भी कोई गाथा रही होगी?

लोक संगीत की कलात्मक ऊंचाइयों से सरोबार प्रस्तुति ‘चंदैनी गोंदा’ और ‘कारी’ के माध्यम से कृषक जीवन और नारी मन की कोमल अभिव्यक्ति को अत्यंत प्रभाव पूर्ण प्रस्तुति में बदल देने वाले रामचन्द्र देशमुख ऐसे ही प्रभावशाली व्यक्तित्व थे, जो अपने व्यक्तित्व की प्रभावोत्पादकता के कारण छत्तीसगढ़ अंचल के जन-जन को अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए खड़ा कर सके थे। छत्तीसगढ़ के समस्त लोक कलाकारों और लोक परंपरा के संवाहकों को एक मंच में एकत्रित कर सके थे। निरंतर सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए छत्तीसगढ़ की जनता में सांस्कृतिक बोध और राजनीतिक चेतना का संयुक्त आव्हान उन्होंने कर दिखाया था।

इस दृष्टि से ‘चंदैनी गोंदा’ और ‘कारी’ इन दोनों नाट्य प्रस्तुतियों में छत्तीसगढ़ की आत्मा के गौरवगान को प्रतिष्ठापित करने के साथ यहां के जनमानस में अपने अधिकारों के प्रति ललक जगाने की एक अंतरधारा प्रवाहित की गई थी। दरअसल ये दोनों आयोजन निपट सांस्कृतिक कर्म नहीं थे बल्कि अपने आप में एक जिहाद थे जिन्हें छत्तीसगढ़़ की भावी रणनीति तय करने के लिए चिंगारी लगाकर प्राथमिक विस्फोट कर दिया था रामचन्द्र देशमुख ने। यह आंदोलनकारी प्रयास उच्च शिक्षित, अध्येता, प्रखर बुद्धिजीवी और सक्रिय संस्कृतिकर्मी रामचन्द्र देशमुख के प्रभावशाली व्यक्तित्व से ही संभव हो सका था।

रामचन्द्र देशमुख कई मायनों में अपने समय से आगे चल रहे थे। दुर्ग में शिवनाथ नदी के किनारे ‘बघेरा’ नामक छोटे से गाँव के रहवासी होकर उन्होंने बी.एस.सी. (कृषि) एल.एल.बी. की उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली थी। अपने घर के सामने पीपल के पेड़ पर उन्होंने अपने गाँव बघेरा की नाम पट्टिका लगवा दी थी। इस तरह किसी गाँव के नाम का ऐसा आत्मीय प्रयास कहीं देखने में नहीं आता था। उच्च शिक्षित होकर भी यह अपने गाँव और मिट्टी के प्रति मोह का एक अनूठा उदाहरण है।

गाँव से थोड़ी दूर उन्होंने अपना एक फार्म हाऊस विकसित किया था जहां रोज शाम को वे अपनी कार से घूमने जाया करते थे। लोककला के विराट क्षेत्र में डूबे रहने के बाद भी कृषि और बागवानी के प्रति उनका रूझान कम न था। उनकी बहुप्रसिद्ध प्रस्तुति ‘चंदैनी गोंदा’ का नाम एक फूल पर रखा गया था। यद्यपि यह ज्ञात है कि चंदैनी गोंदा देवता में चढ़ाया जाने वाला पवित्र फूल है इसलिए यह नाम देशमुख जी को उपयुक्त लगा, पर यह भी संभव है कि एक सांस्कृतिक मंच का नाम किसी फूल के नाम पर रखने की प्रेरणा उन्हें अपने बागवानी प्रेम से भी मिली होगी।

देशमुख जी निरंतर अध्ययन किया करते थे। उनके पास अंग्रेजी, हिन्दी और छत्तीसगढ़ी साहित्य के दुर्लभ ग्रंथ थे। किताबों का संकलन वृहद था और उन्हें कांच की आलमारियों में इस तरह सजाकर रख दिया गया था कि वह एक छोटी सी लायब्रेरी बन गई थी। जब लोग देशमुख जी के बैठक कक्ष में आते तो उनका संकलन देखकर अचंभित रह जाते थे। मांगने पर वे पुस्तकें देते नहीं थे। बल्कि यह कहते थे ‘जिसको पढ़ना है वह जितने दिन चाहे यहां रहकर पढ़ सकता है। रूकने वाले के लिए आवास, भोजन एवं घूमने-फिरने की समुचित व्यवस्था होगी’… और तब पुस्तकें पढ़ने के लोभ में रूक जाने वाले अतिथियों के साथ वे सत्संग करने का भरपूर लाभ उठाने से नहीं चूकते थे। रूका हुआ व्यक्ति लौटते समय यह महसूस करता था कि वह अपनी मनचाही पुस्तक नहीं पढ़ पाया बल्कि उसने रामचन्द्र देशमुख नामक एक बड़ी किताब पढ़ डाली है।

देशमुख जी लोककला मर्मज्ञ माने जाते थे पर उनका साहित्य में इतना दखल था कि किसी लेखक को उनके साथ बहस करने के लिए अच्छी खासी तैयारी करनी पड़ सकती थी। उनकी दृढ़ता और उनकी बात को मनवाने की साधिकार चेष्टा के पीछे उनका गहन अध्ययन और चिंतन क्षमता थी। वे कहते थे- ‘मुझे अपनी बात कहने के लिए रिसीवर चाहिए।’

लोककला और साहित्य के अतिरिक्त देशमुख जी का तीसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र था-आयुर्वेद। वे आयुर्वेद के ज्ञाता थे और घर आए रोगियों का आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज करते थे. विशेषकर गठिया-वात और लकवाग्रस्त मरीजों का आगमन उनके पास बड़ी दूर से हुआ करता था। अपने इलाज़ की वे बाकायदा फीस लिया करते थे और इस मामले में वे अपने करीबी लोगों को भी नहीं बख्शते थे, यह समझाइश देते हुए कि “दवाइयां मुफ्त में लेने पर उसका सम्यक असर नहीं होता।”

वे स्वयं मधुमेह के रोगी थे बावजूद इसके अपने नियमित जीवन तथा खान-पान की सजगता से स्वस्थ बने रहकर उन्होंने 82 वर्ष की आयु तक सक्रिय जीवन को जीया था। अपनी सेहत का राज वे रोज एक गिलास ताजा छाछ का पीना बतलाया करते थे। आने वालों को वे सुपारी के बदले में हर्रा के टुकड़े दिया करते थे, यह बताते हुए कि “आयुर्वेद में हर्रा का गुणगान कुछ इस तरह किया गया है कि एक बार शिशु को मां का दूध भी धोखा दे सकता है लेकिन हर्रा फल का एक-एक कण सेवन करने वाले के लिए अमृत के समान है।”

मंचों पर सफल कार्यक्रम अपनी लोक मंडली से करवा लेने वाले देशमुख जी में ‘शो-मेनशिप’ भरा हुआ था। उन्हें अभिनय, निर्देशन, गीत-संगीत, नृत्य और मंचीय साज-सज्जा की गहरी समझ थी। इसके अतिरिक्त वे अघोषित रूप से अपनी सलाहकार समिति भी रखा करते थे जिनमें लोककला विशेषज्ञों के अतिरिक्त साहित्यकार, पत्रकार, कवि और समालोचक शामिल हुआ करते थे। इनके साथ वे अपने कार्यक्रम के संदर्भ में राय-मशविरा किया करते थे। हर पल तुलमुलाने और कभी एकदम अधीर हो जाने वाले कला निर्देशक देशमुख जी जहां कलात्मक प्रस्तुतियों की बात आती थी वहां वे एकदम से धीर-गंभीर हो जाते थे। कार्यक्रम देने के समय मंच पर उनका इतना दबदबा होता था कि चाहे कलाकार हो या आयोजकगण या दर्शक, कोई चूं नहीं कर सकता था। हर मोर्चे पर उनकी इतनी पकड़ होती थी कि श्रेष्ठतम् प्रस्तुतियों का सिलसिला रातभर चलता रहता और न केवल ग्रामीण दर्शक बल्कि शहरी क्षेत्र का दर्शक वर्ग भी लोक रंग की इन छटाओं को ठगा सा देखता रह जाता। उनकी ‘शो-मेनशिप’ ने उन्हें अपने व्यक्तित्व को संवारने के प्रति भी सजग बनाया था।

देशमुख जी एक समृद्ध कृषक थे, अपने गाँव के सबसे बड़े किसान जिन्हें छत्तीसगढ़ी में ‘दाऊ’ कहा जाता है। वे बघेरा गाँव के मालगुजार-दाऊ थे लेकिन जिस तरह लोग अपने नाम के आगे पंडित या दाऊ संबोधन लगाकर महिमामंडित होने का लोभ संवरण नहीं कर पाते, ऐसा कोई मोह उनमें नहीं था। लोग भले ही उन्हें दाऊ रामचन्द्र देशमुख कहते रहे पर उन्होंने खुद होकर अपने नाम के आगे दाऊ नहीं लगाया। अपनी ठाट-बाट को रखते हुए भी दाऊओं के सामंती संस्कारों से अपने आपको उन्होंने मुक्त रखा था। उस दौर में जब आर्थिक संकीर्णता से ग्रस्त सामंती संस्कारों से भरे दाऊ लोग बैलगाड़ी दौड़ाया करते थे तब दाऊ रामचन्द्र देशमुख अपने एक हाथ से छड़ी घुमाते हुए और दूसरे हाथ से पनामा सिगरेट फूंकते हुए अपनी एयरकंडीशन्ड कार में बैठकर झोपड़पट्टियों की ओर निकल जाया करते थे जहां फटे टाट-पैबन्दों और टूटे-फूटे दरवाजों के भीतर लोककला की प्रतिभाएं प्रस्फुटित हुआ करती हैं।

इस तरह इन प्रतिभाओं को तलाश और तराशकर लोकमंच के माध्यम से दलितों-शोषितों को ऊपर लाने का अभीष्ट कार्य रामचन्द्र देशमुख ने कर दिखलाया था।
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विनोद साव (आलेख वर्ष-२००१. डॉ सुरेश देशमुख द्वारा संपादित ‘चंदैनी गोंदा-समग्र’ में पुनः संकलित)
चित्र में रामचन्द्र देशमुखजी हमारे दादाजी पतिराम साव से आत्मीय भेंट हेतु पधारे. (छायाकार: प्रमोद यादव)

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