और मैं
उसकी आस इस तरह
पलकों पे उतरती है
जैसे तप्त दोपहरी के बाद अंबर से
हौले-हौले साँझ उतरती है
…और मैं
शुद्ध सारंग की बंदिशें साधता उसे लिए
अचानक आहिस्ता से उतर आता हूँ
भीमपलासी के अवरोह में!
उसकी उम्मीद इस तरह
उर में पसरती है
जैसे नील नभ में छितरे
सांयकाल मूक सुरमई रंग
…और मैं
कल्पनाओं के नारंगी सूर्य डफ पर
थपकने लगता
उसकी सुधियों का चंग!
उसका ध्यान गोधूलि में इस तरह
मानस में उग जाता है
जैसे व्योम में प्रस्फुटित होता
देदीप्यमान ध्रुव तारा
…और मैंने
हर रात्रि नीरवता में बैठ
जिसे निर्निमेष निहारा!
उसकी कामना इस तरह
संकेत कर यूँ बुलाती है
जैसे पुकार रही हो
दूर क्षितिज पर बैठी
कोई साँसों की जोगन
…और मैं
जिसकी निश्छल पुकार पर
भूल जाता अपना जीवन यापन!!
– अनिला राखेचा