November 21, 2024

फ़िल्म ‘स्वामी’ : बासु चटर्जी (1977)

0

मनुष्य का जीवन द्वंद्वों से घिरा होता है।इन द्वंद्वों से मुक्ति बहुधा आसान नहीं होतीं। हमारे बहुत से निर्णय परिस्थिति सापेक्ष होते हैं।हालात बदल जाने से एक समय का सच हर समय का सच नहीं रह पाता। चुनाव का संकट हमेशा सही और गलत के बीच नहीं होता,वह दो ‘सही’ में से एक को चुनने का भी हो सकता है।

मनुष्य के इस वैचारिक निर्मिति में जैव-सामाजिक पक्ष महत्वपूर्ण होता है जो देशकाल बद्ध भी होता है।किसी समाज के ‘नैतिक मानदंडों’ की समग्रता के निर्धारण के बहु कारक हुआ करते हैं। बावजूद इसके हम उसके औचित्य-अनौचित्य का निर्धारण मनुध्य मात्र के मौलिक अधिकारों के निर्बाधता के संदर्भ में ही कर सकते हैं।

फ़िल्म ‘स्वामी’ का परिवेश सामंती से पूंजीवादी संक्रमण के दौर का समाज है। संयुक्त परिवार कायम हैं, मगर व्यक्तिवाद बढ़ रहा है। पति ‘स्वामी’ है तो स्त्रियां शिक्षित भी हो रही हैं। एक तरफ स्त्री का विवाह अभी भी माप-जोख,लेन-देन का विषय है तो दूसरी तरफ ‘सौदामनी’ जैसी स्त्री भी है जो अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करने से मना भी कर सकती है।

समाज में पितृसत्तात्मक मूल्य कायम है तो उसके बीच ऐसे भी चरित्र हैं जो काफी हद तक इससे मुक्त हैं। सौदामनी के मामा हो के नरेंद्र या घनश्याम ,ये सब स्त्री व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं।

सौदामनी का प्रेम नरेंद्र से होता है मगर विवाह घनश्याम से।यों विवाह के समय सौदामनी और नरेंद्र का निर्णायक कदम न उठा पाना खटकता तो है,क्योंकि दोनों स्वतंत्र चेता से जान पड़ते हैं, मगर ‘परिस्थितियों की मजबूरी’ का फार्मूला यहां भी अपनाया गया है। सौदामनी का विवाह घनश्याम से हो जाता है मगर वह उससे दूर ही रहती है; अवश्य उसका अपमान भी नहीं करती।

घनश्याम का चरित्र उदात्त है। यों वह घर का बड़ा भाई है, मगर उसके साधुता के कारण परिवार उसकी उपेक्षा करता है।कोई उसे चाय तक के लिए नहीं पूछता, नौकर उसके काम के लिए खाली नहीं रहतें। माँ, बहन, भाई के लिए वह ऐसा व्यक्ति है जो केवल काम करता है और जिसकी कोई अन्य इच्छा नहीं है। घनश्याम में भीरुता नहीं है,वह अपने चरित्र के निष्कपटता और मानवीयता के कारण सहज रूप से सादगीपूर्ण जीवन जीता है।

वह सौदामनी से विवाह उसके प्रेमप्रसंग को जानते हुए भी करता है, अवश्य वह उसकी दूसरी पत्नी है, लेकिन उसके व्यक्तित्व को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वह सौदामनी को पहले पत्नी के रूप में न स्वीकारता। विवाह के बाद सौदामनी उससे अलग सोती है मगर वह कोई जबरदस्ती नहीं करता। वह घर और पत्नी के द्वंद्व को अपनी निश्छलता से जैसे साध लेता है।उसके अंदर कोई चालाकी नहीं है वह स्वयं कष्ट सह कर परिस्थिति के तनाव को कम कर सकता है।

सौदामनी के अन्तस् में नरेंद्र बसा है मगर घनश्याम की सह्रदयता उसे प्रभावित करती जाती है। उसके अंदर घनश्याम के प्रति प्रेम उमड़ते जाता है। ज़ाहिर है इसमे घनश्याम की निष्कपटता की महत्वपूर्ण भूमिका है। वह घर में घनशयाम की उपेक्षा के प्रति असहज होती है और धीरे-धीरे विरोध दर्ज करती है। ज़ाहिर है इससे घर मे तनाव पैदा होता है।

नाटकीय परिस्थिति में नरेंद्र का उसके ससुराल आना और घनश्याम का बाहर जाना होता है।यों प्रकटतः नरेंद्र उसके देवर का मित्र है इस नाते आया है मगर अंदर से वह सौदामनी को वहां से ले जाने आया है।नरेंद्र और सौदमनी को चर्चा करते जब घर में देख लिया जाता है तो अनावश्यक लांछन से वह उसके साथ घर से निकल जाती है, और रेलवे स्टेशन आ जाती है।

मगर इधर जैसे जैसे ट्रेन के आने का समय होता जाता है उसका द्वंद्व बढ़ते जाता है। उसे अहसास होने लगता है जैसे वह कुछ गलत कर रही है। उसकी आँखों में घनश्याम का चेहरा झूलने लगता है;उसकी बातें याद आने लगती है, उसका समर्पण उसे कचोटने लगता है। इधर ट्रेन पहुँचती है और नरेंद्र उसे चलने कहता है। वह अपना द्वंद्व प्रकट करती है, मगर नरेंद्र कहता है कि अब उसे घनश्याम स्वीकार नहीं करेगा। उधर नरेंद्र ट्रेन में सामान रखने जाता है, इधर सौदामनी द्वंद्व से भरी जब आँख खोलती है तो सामने घनश्याम होता है, जो उसे घर ले जाने आया होता है। सौदामनी भाव-विभोर होकर उसके चरणों मे झुक जाती है, उसे अहसास होता है वही उसका ‘स्वामी'(पति) है।घनशयाम उससे कहता है कि उसे नरेंद्र के बारे में पहले से ज्ञात था।

इस तरह फ़िल्म में चुनाव का द्वंद्व फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ की याद दिलाता है। दोनों के निर्देशक बासु चटर्जी हैं। रजनीगंधा मन्नू भंडारी के कहानी पर आधारित है तो ‘स्वामी’ शरत चन्द्र जी की कहानी पर जिसकी पटकथा बासु चटर्जी ने लिखी है मगर संवाद मन्नू भंडारी ने ही लिखा है। अवश्य ‘रजनीगंधा’ की स्त्री का परिवेश ‘स्वामी’ के परिवेश से थोड़ा आगे के समय का है, मगर द्वंद्व दोनों जगह दो ‘सही’ में एक के चुनाव का है।

जैसा कि हमने हमने कहा ‘स्वामी’ का परिवेश अपेक्षाकृत पहले का है इसलिए यहां स्त्रीपक्ष स्वाभाविक रूप से अधिक दबा हुआ है और पितृसत्ता के रंग अधिक गहरे ढूंढें जा सकते हैं। बावजूद इसके मानवीय रिश्तों की जटिलता और उसके द्वंद्व अपने देशकाल के बावजूद प्रभावित करते हैं।

———————————————————————
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *