हिंदी के इतिहास में कुछ बड़े उपन्यासों में से एक: आपका बंटी
कुछ समय पहले एक यात्रा में ‘मन्नू भण्डारी की प्रतिनिधि कहानियाँ’ पुस्तक साथ रख ली थी। अमूमन मैं एक तरह का लेखन एक साथ पढ़ नहीं पाता इसलिए कुछ और किताबें-पत्रिकाएँ भी लेकर चला था लेकिन जब एक बार पढ़ना शुरू किया तो पूरी यात्रा में वही पुस्तक पढ़ी जाती रही और दो-चार के अलावा लगभग सभी कहानियाँ पढ़ ली गयीं। मन्नू को पढ़ते हुए पाया कि इनका लेखन सच्चे अर्थों में प्रेमचंद की परम्परा का लेखन कहा जा सकता है। अब तक वे लगभग प्रिय रचनाकार हो चुकी हैं।
पिछले दस दिनों से मन्नू जी का बहुचर्चित उपन्यास ‘आपका बंटी’ पढ़ा जा रहा था। पढ़ा क्या जा रहा था, शब्द-शब्द जिया जा रहा था। इनके लेखन में संवेदनाएँ इस तरह घनीभूत होकर आती हैं कि बस मन चीर देती हैं। ऊपर से इनका महीन विश्लेषण पूरा दृश्य आँखों के सामने खड़ा-सा कर देता है। यह उपन्यास पढ़ते हुए मैं बराबर एक फ़िल्म की तरह दृश्यों को अनुभव करता रहा। बंटी का घर, बग़ीचा, डॉ० जोशी का घर और वहाँ का वातावरण, कलकत्ता का अजय का घर सबकुछ जीवन्त होकर आया है।
लगभग आधे से ज़्यादा उपन्यास मनोविश्लेषणात्मक शैली में चलता है और बंटी के मासूम मन की मनःस्थिति का इतना सूक्ष्म और यथार्थ विश्लेषण मिलता है कि अनेक-अनेक बार पाठक बंटी के साथ ही भावुक हो उठता है या चहक उठता है। ज़ाहिर है कि यह उपन्यास एक तरह से बंटी के यातनामय सफ़र की एक दास्तान है। और इस यातना का कारण है अजय और शकुन (बंटी के माता-पिता) के अलगाव तथा तलाक की उपज है। यही इंगित करना उपन्यासकार का लक्ष्य भी रहा है कि अलग हुए दम्पतियों की संतानें कितना कुछ झेलकर आगे बढ़ती हैं। हालाँकि यहाँ लेखक किसी भी तरह से अजय और शकुन को जस्टिफाई नहीं करती कि इनमें से कोई एक या दोनों ने कुछ ग़लत किया लेकिन एक अनकहा संदेश जो मुझे समझ आया वह यही दिखा कि थोड़े-से कम्प्रोमाइज़ से अगर सम्भव हो तो दोनों तरफ से प्रयास किये जा सकते हैं कि ऐसी स्थिति में बच्चे बिना किसी दोष के बंटी की तरह यातनाएँ न भोगें।
बहरहाल एक शानदार पुस्तक जो 1971 में प्रकाशित हुई और आज भी हिंदी के पाठकों में इसी तरह लोकप्रिय तथा सार्थक बनी हुई है। अपने साथ बहाए ले जाने वाली ऐसी ही अनुभूति इससे पहले किशोरावस्था में प्रेमचंद के ‘निर्मला’ उपन्यास ने करवाई थी और अब इसने। यह इस पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता है कि यह कहे गये से कहीं अधिक न कहे गये में अभिव्यक्त होती है यानी जैसे-जैसे हम इसे पढ़ते जाते हैं, एक गूँज-सी हमारे मन-मस्तिष्क पर छूटती रहती है।
पूरे उपन्यास में रोचकता बनी रहती है बल्कि अंत तक आते-आते बढ़ती जाती है। कहीं कुछ ऐसा नहीं जो बोझिल लगे। एक धारा की तरह सबकुछ बहता जाता है और अंत में हज़ारों विचारों से घिरा एक मन खड़ा रह जाता है। चिंतन-मनन के लिए विवश कर देता है यह उपन्यास। इसे हिंदी के इतिहास में कुछ बड़े उपन्यासों में से एक कहा जा सकता है, जैसा कि इसे माना भी जाता है।
– के० पी० अनमोल