November 22, 2024

आज पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में बोलते हुए!

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हर विकासशील भारतीय भाषा का एक अपना विश्व होता है जो स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक के बौद्धिक त्रिभुज से बनता है। इस त्रिभुज का कोई कोण छोटा या बड़ा हो सकता है, पर इसके बिना हर भारतीय अधूरा है!

हाल के विकासों ने विश्व परिदृश्य में हिंदी को ज्ञान / साहित्य की भाषा से बाजार की भाषा में बदल दिया है। क्या अनिवासी भारतीय, क्या प्रवासी, क्या आप्रवासी, किसी जमात की नई पीढ़ी को हिंदी से मतलब नहीं है। हिंदी का बाजार में महत्व बढ़ा है, पर समाज में काफी घटा है!

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हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता के लिए, चाहे वह देश में हो या विश्व में हिंदी की प्रकृति, परंपराओं और क्षमताओं को समझना जरूरी है। हिंदी की प्रकृति किसी भी भाषा से अधिक लचीली, परपराएं अधिक विविधतापूर्ण और क्षमता इसको समझने वालों की बड़ी संख्या के कारण ही नहीं, इसकी समावेशिकता की प्रकृति के कारण भी, बहुत अधिक है। हिंदी में बहुत अधिक अनुवाद होते हैं। यह भारतीय भाषाओं का आंगन है। यह कइयों की तरह आत्मोन्मुख भाषा नहीं है।

किसी मराठी बोलने वाले से पूछो, तुम कौन हो। वह बोलेगा — मराठी। किसी तमिल बोलने वालों से पूछो, वह बोलेगा तमिल हैं। पर किसी हिंदी बोलने वाले से पूछो, वह एक बार भी नहीं बोलेगा कि वह हिंदी है! इसका अर्थ है कि हिंदी आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की भाषा नहीं है। इसे सकारात्मक ढंग से भी लिया जा सकता है। हिंदी सबको जोड़ने वाली भाषा है। यह सभ्यताओं के संवाद की भाषा है।

हिंदी को औपनिवेशिक एलीटवादी और भाषाई मूलवादी दोनों ही नकारते रहे हैं! वे कहते रहे हैं, हिंदी किसी की भाषा नहीं है।

हमारे देश में हजारों साल की अशिक्षा ने ही नहीं, डेढ़ सौ सालों की कुशिक्षा ने भी बड़ा नुकसान किया है। कुशिक्षा का एक रूप बौद्धिक उपनिवेशवाद का प्रभाव है। आज भी शिक्षा में इंडो- आर्यन भाषा परिवार की धारणा बनी हुई है, अर्थात उत्तर भारतीय भाषाओं और संस्कृत का मूल स्रोत यूरोप है। उनको बताना था कि अंग्रेज कोई और नहीं भारत के ही श्रेष्ठ पूर्वज हैं और उनके राज्य को अपनों का शासन मानना चाहिए! उपनिवेशक बड़े विद्वतापूर्ण ढंग से मूर्खतापूर्ण बातों का प्रचार करते थे और भारतीय बुद्धिजीवी उन्हें स्वीकार्वकर थे।
इसी तरह का षड्यंत्र ग्रियर्सन ने हिंदी को पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी का विभाजन करके किया था, जो अवैज्ञानिक था।

आज भाषा को बिगाड़ने में राजनीति और मीडिया दोनों की बहुत बड़ी भूमिका है। भाषा का बिगड़ना मूल्यों के उजड़ने का चिह्न है!

–शंभुनाथ

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