एक रोचक एवं मार्मिक नाटक: आषाढ़ का एक दिन
कवि कालिदास के जीवन को आधार बनाकर रचा गया प्रतिष्ठित कथाकार एवं नाटककार मोहन राकेश का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ पढ़ा, जिसे आधुनिक हिंदी नाटक की शुरुआत का सूचक माना जाता है।
नाटक अपने नायक कवि कालिदास एवं शासक कालिदास (सत्ता में आने के उपरांत मातृगुप्त) के व्यक्तित्व के मध्य होते द्वंद्व को प्रमुखता के साथ चित्रित करता है। यह एक कवि के महत्त्वाकांक्षा में बहकर अपने मूल स्वभाव और परिवेश से छूट जाने की कहानी है। अपने मूल स्वभाव और परिवेश से छूट जाने पर वह अंत तक उनके लिए छटपटाता है और आख़िरकार सबकुछ छोड़-छाड़ कर हिमालय की तलहटी में बसे अपने सुरम्य गाँव में वापिस लौट आता है। हालाँकि वापिस आने पर उसे एहसास होता है कि समय किसी का इंतज़ार नहीं करता। वह अपनी ही गति से चलता रहता है।
यूँ तो पूरी कहानी कालिदास के इर्द-गिर्द रची गयी है लेकिन इस कहानी का असली नायक बनकर उभरती है कवि कालिदास की प्रेयसी मल्लिका। निःस्वार्थ प्रेम, त्याग और विश्वास के गुणों से युक्त मल्लिका का व्यक्तित्व अद्भुत बन पड़ा है। वह कालिदास के भले के लिए उसका त्याग करती है और अपने प्रेम (जो कहीं भी खुले रूप में प्रकट होकर नहीं आता) के लिए लम्बी प्रतीक्षा करती है। हालाँकि पूरी कहानी में सबसे अधिक त्रासदी भी वही झेलती है और काल के चक्र के सामने घुटने टेक देती है।
अपनी काव्यात्मक भाषा के लिए प्रसिद्ध तीन अंकों का यह नाटक हिंदी भाषा के साहित्यिक इतिहास की महत्त्वपूर्ण कृति बनकर उभरता है। इसकी तत्समनिष्ठ भाषा पाठक के लिए कहीं भी बाधा नहीं बनती बल्कि रोचक परिवेश रचती है। नाटक संवेदना के स्तर पर भी मार्मिक बन पड़ा है। इसे पढ़ते हुए कुछ छूटते हुए की कसक लगातार बनी रहती है। यह ‘छूटना’ नायक तथा नायिका दोनों ओर से है लेकिन एक आस बराबर बनी रहती है और अंत तक आते-आते यह आस धूल-धूसरित हो जाती है और पैदा करती है एक छटपटाहट। यही छटपटाहट लिए नाटक दुखांत रूप में अपनी परिणति पर पहुँचता है।
आकार में छोटी-सी यह पुस्तक पाठक के लिए अनेक-अनेक संदेश छोड़ती है। महत्त्वाकांक्षा के लिए अपनी जड़ों से छूटने की टीस जो इस नाटक में उठती है, वह मुझ जैसे व्यक्ति के लिए अधिक पीड़ादायी जान पड़ती है लेकिन कहीं न कहीं यह एहसास भी कराती है कि ऊँचाइयों के लिए अपनी ज़मीन को पैरों में रखा जाय तो बहुत बेह्तर अन्यथा जिस दिन अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से ऊब पैदा हुई कि पैर धरने को ठिकाना मिलना मुश्किल हो जाता है। साथ ही साथ एक संतुष्टि यह मिलती है कि जिस द्वंद का कालिदास जीवन भर दंश झेलते हैं, उस द्वंद को बहुत पहले छोड़, ‘मन के मार्ग’ की तरफ चल पड़ना एक बहुत अच्छा निर्णय रहा। नाटक की कई-कई चीज़ें ऐसी हैं, जिनके तार हमारे निजी जीवन से जुड़ जाते हैं। अगर यह जुड़ाव आप अनुभव करें तो यक़ीनन यह आपके लिए सकारात्मक होगा।
काफ़ी समय से पढ़ने के लिए विशलिस्ट में रही इस कृति को पढ़कर संतुष्टि के साथ-साथ बहुत अच्छा अनुभव भी मिला और यह भी कि साहित्य से वर्षों के जुड़ाव के बावजूद भी किसी नाटक विधा की रचना पढ़े जाने का यह लगभग पहला अवसर है। इससे स्कूली जीवन में पढ़ा भारतेन्दु हरिश्चंद्र का प्रहसन ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ ही स्मृति में है। कुल मिलाकर पिछले कुछ समय से स्पष्ट होता जा रहा है कि बड़ा लेखन क्या होता और क्यूँ उसे बड़ा माना जाता है।
– के० पी० अनमोल