टुकड़े- टुकड़े छांव के!
धुंआ -धुंआ है आज शहर में,आग उगलते गांव दिखें।
चादर छोटी झीनी- झीनी,दुख के लंबे पांव दिखें।
छल छद्मों का धुंध सुबह है,
खगदल शोर मचाते हैं।
अपर्ण तरु सम जीवन गाथा ,
सूनी लंबी रातें हैं ।
भ्रम में सारी आज उड़ाने,अनजाने अब छांव दिखें।
धुंआ -धुंआ है आज शहर में, आग उगलते गांव दिखें।
पीड़ा का इतिहास बताने,
आज नदी भी रोती है ।
पावस ऋतु आने से पहले ,
बीज कहां खुश होती है ।
सर सर सर सर हवा चली जब,डगमग -डगमग नाव दिखें।
धुंआ -धुंआ है आज शहर में,आग उगलते गांव दिखें।
कविता में अनुवाद पुरानी,
अर्थ भाव सब बदल गए।
जाकर शब्दों के गलियारे,
सुर लय सारे मचल गए।
पथ से पथ जाकर कहता है, नए-नए सब घाव दिखें।
धुंआ -धुंआ है आज शहर में, आग उगलते गांव दिखें।
दौड़ रही है लेकर दर्पण,
जब जीवन का सांझ हुआ ।
खुद को ढूंढ रही पीड़ा में,
उरतल उसका बांझ हुआ।
बरगद पीपल पेड़ पुराने ,कभी हमारे ठांव दिखें।
धुंआ -धुंआ है आज शहर में आग उगलते गांव दिखें।
नवनीत कमल
जगदलपुर छत्तीसगढ़
चित्र गूगल से साभार