मुक्तिबोध का आलोचनात्मक लेखन
मुक्तिबोध का आलोचनात्मक लेखन उनके रचनात्मक संघर्ष और आत्मसंषर्ष का ही हिस्सा है.वे मुख्यतः कवि हैं, आलोचना मुख्यतः उन्होंने अपने समय की आलोचना की प्रवृति से असंतुष्ट होकर लिखी है. उनके आलोचनात्मक लेखन को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है – (1) नयी कविता की अंतः प्रवृत्तियों के संबंध में (2) काव्य की रचना प्रक्रिया के संबंध में (3) तत्कालीन आलोचना की प्रवृत्तियों के संबंध में. कामायनी पर लिखी आलोचना को जरूर एक पेशेवर आलोचक की हैसियत से लिखी कृति कही जा सकती है, मगर उसे भी मुक्तिबोध एक पाठक की हैसियत से बीस वर्षों से लगातार अध्ययन से उत्पन्न जिज्ञासा एवं समस्याओं के फलस्वरूप खंड-खंड में लिखते रहें.इतिहास एवं संस्कृति पर उन्होंने एक स्कूली पाठ्यपुस्तक ही लिखी है .भक्तिकाल पर लिखे एक लेख से उनके साहित्य के इतिहास की समस्याओं पर उनकी रूचि का पता चलता है. सम्भवतः यदि उन्हें और समय मिलता तो कुछ मूल्यवान विश्लेषण सामने आ पाता. इसके अतिरिक्त उन्होंने त्रिलोचन, शमशेर, पंत,शुभद्राकुमारी चौहान, कुंवर नारायण, परसाई जी, के रचनाकर्म और कृति की महत्त्वपूर्ण समीक्षाएं भी लिखी हैं.
मुक्तिबोध की आलोचना को एक महत्त्वपूर्ण देन ‘संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना’ है, यह उनकी आलोचना का मूलाधार है.आलोचक और रचनाकार के लिए इन दोनों का होना बहुत जरुरी है. बिना संवेदना के आलोचक किसी रचनाकार के व्यक्तित्व और जीवन में गहरी रुचि नहीं लेगा, और इस तरह उसके रचनात्मक कमियों और असफलताओं के, उसके रचनाओं में प्रयुक्त प्रतीकों, बिम्बों, के और अंततः उसके कृतित्व के सही समझ से चूक सकता है. मुक्तिबोध बार-बार आगाह करते हैं कि बिना रचनाकार के जीवन-संघर्ष को समझे उसके कृतित्व का मूल्यांकन अधूरा रह जाएगा. मगर संवेदना महज क्षणिक भावुकता नहीं रह जाना चाहिए, उसके साथ यथार्थपरक ज्ञान भी जरुरी है.ज्ञान जितना जरुरी आलोचक के लिए है, उतना ही रचनाकार के लिए भी.महज भावावेश में रची गई रचना में उस भाव के संपूर्ण आयाम प्रकट नहीं हो पातें, इसके लिए वैज्ञानिक दृष्टिपरक ज्ञान की जरूरत होती है.मगर यह ज्ञान पूर्ण नहीं होता, विकासमान होता है. मुक्तिबोध द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को इसी निग़ाह से देखते हैं. रचना को उसके सभी आयामो में देखे जाने के लिए ही उन्होंने ‘सभ्यता समीक्षा’ शब्द का प्रयोग किया.
मुक्तिबोध यथार्थ को केवल स्थूल भौतिक यथार्थ तक सिमित रखने के पक्षधर नहीं थे, वे मनस्तत्व को भी ‘वस्तु’ के रूप में देखने पर जोर देते हैं, ताकि रचनाकार के आंतरिक द्वंद्वों का का भी वस्तुपरक चित्रण किया जा सके।इस एक तरह से वे ‘यथार्थ’ की अवधारणा का विस्तार करते हैं। वस्तुतः आलोचना भी एक रचनात्मक कर्म है और आलोचक को अंततः रचनाकार का सहयोगी होना चाहिए। आलोचना का उद्देश्य किसी को ‘ध्वस्त’ करना नहीं होना चाहिए, अपितु कृति के गुण-दोष को दिखाते हुए यह विश्वास निहित होना चाहिए कि “मनुष्य में सुधार किया जा सकता है, मनुष्य अपनी कमजोरियों और सीमाओं से ऊपर उठ सकता है।” ऐसी आलोचना को मुक्तिबोध ‘मर्मी आलोचना’ कहते हैं।
यथार्थवाद को नयी दृष्टि से देखने के क्रम में मुक्तिबोध यह भी प्रस्तावित करते हैं कि “यथार्थवादी शिल्प और दृष्टिकोण में अंतर है। बहुत ही सम्भव है कि यथार्थवादी शिल्प के विपरीत जो भाववादी शिल्प है- उस शिल्प के अंतर्गत, जीवन को समझने की दृष्टि यथार्थवादी रही हो।” इस तरह यथार्थ की समस्या केवल शिल्प की समस्या नहीं है।उनके ‘फैंटेसी’ के प्रयोग को इस दृष्टि से समझा जा सकता है।
नयी कविता के अन्तः प्रवृत्तियों को समझाने के लिए मुक्तिबोध ने कई लेख लिखें,क्योंकि उन्हें महसूस हो रहा था कि आलोचक संपूर्ण नयी कविता को एक ही दृष्टि से देख रहें थें, जबकि उसमे अलग-अलग अन्तः धाराएं थी.एक धारा अभिजनवादी व्यक्तिवाद की थी, जो क्षणवाद और लघुमानव का दर्शन गढ़ रही थी.यह धारा व्यक्ति स्वतंत्रता और विशिष्टता तथा अद्वितीयता के नाम पर यथार्थवादी प्रगतिशील कविता का विरोध कर रही थी.दूसरी धारा जिससे मुक्तिबोध अपने को जोड़ते थें, निम्न मध्यमवर्ग की थी, जो शिल्प के स्तर पर जरूर पहली धारा के कुछ करीब थी,किंतु संवेदना और विचारधारा के स्तर पर इससे भिन्न थी, और जिसमें जीवन के जद्दोजहद, रोटी-कपड़ा-मकान,जीवन के मूलभूत जरूरतों के आभाव की पीड़ा, निराशा प्रकट हो रही थी.मगर तत्कालीन प्रगतिवादी आलोचकों ने दोनों के अंतर को नज़रअंदाज़ कर दिया, और अभिजनवादी, अस्तित्ववादी कुंठा और अभावजनित निराशा और आत्मसंघर्ष को बिना अलगाये दोनों की एक समान आलोचना की. मुक्तिबोध ने इस अंतर को रेखांकित किया और उसे नयी कविता का आत्मसंघर्ष कहा.
मुक्तिबोध ने कविता की रचना प्रक्रिया पर काफी लिखा है.इनमे ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में संकलित निबंध ‘कला का तीसरा क्षण’ प्रमुख है. कविता के रचना प्रक्रिया को उन्होंने तीन क्षणों में विभक्त करते हुए बताया कि “पहला क्षण जीवन का अकूत अनुभव क्षण है. दूसरा क्षण अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और फैंटेसी का रूप धारण कर लेना है. और तीसरा और अंतिम क्षण है फैंटेसी का शब्द बद्ध होना”.मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में फैंटेसी का काफ़ी प्रयोग किया है.फैंटेसी को सामान्यतः भाववादी शिल्प माना जाता है, लेकिन उन्होंने लिखा है कि “कभी-कभी जिन्हें भाववादी शिल्प कहते हैं, यथार्थ को अच्छी तरह प्रकट करते हैं”.कहना न होगा की वे इसमें सफल रहें.उन्होंने यह भी बताया कि फैंटेसी के प्रयोग से यथार्थ के दीर्घ चित्रण से बचा जा सकता है.’डायरी’ के अन्य निबन्धों में उन्होंने नयी कविता के आंतरिक संघर्ष, जो मुख्यतः व्यक्तिवादी-अभिजनवादी सौंदर्यदृष्टि के बरअक्स निम्नमध्यम वर्गीय-यथार्थवादी दृष्टि से थी, को रेखांकित किया है। यहां मुक्तिबोध यथार्थ को संकीर्ण अर्थ में न लेकर ‘मनः तत्व’ को भी वस्तु के रूप में देखने पर जोर देते हैं।
मुक्तिबोध ने छायावाद की आलोचना की है.छायावाद से उन्हें मुख्य शिकायत यह थी कि”छायावाद ने अर्थ-भूमि को संकुचित कर दिया है.सौंदर्य, दुःख, कष्ट, लक्ष्य, आदर्श, क्रोध, क्षोभ का चित्रण जो छायावाद में हुआ है, वह वास्तविक मनोदशाओं का नही, वरन कल्पित, दुःख, कष्ट,क्रोध, लोभ, आदि का है”. और भी “उसमे करुणा का विलास है, उसकी तकलीफ नही”.यहां मुक्तिबोध छायावाद की सीमाओं को रेखांकित करते हैं, और नयी कविता को इसकी प्रतिक्रिया से उत्पन्न मानते हैं. लिखते हैं “नयी कविता का जन्म छायावादी व्यक्तिवाद के विरुद्ध यथार्थोन्मुख व्यक्तिवाद की ही बग़ावत थी”.यहां मुक्तिबोध की स्थापना से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता.छायावाद में भी,अपने युगीन सीमाओं के बावजूद यथार्थबोध है, खासकर निराला की कविताओं में.
कामायनी की आलोचना(कामायनी: एक पुनर्विचार) मुक्तिबोध की महत्त्वपूर्ण आलोचना कृति है.इसमें उनका उद्देश्य उसके सौंदर्य पक्ष या कलात्मक विशिष्टता को उद्घाटित करना नहीं है, वरन उसमे निहित जीवन संवेदनाओं, कवि के भावों में समाहित विचारों, रसात्मकता में निहित वस्तुतत्व की पड़ताल करना है.उनके अनुसार “कलाकृति, मूलतः संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त, कल्पना की कीमिया द्वारा जीवन की पुनर्रचना है, अतएव हमे अपने जीवन के ही लिए पुनर्रचित जीवन को देखना होगा”. यदि साहित्य हमारे जीवन के लिए रचित पुनर्जीवन है तो देखना होगा कि यह जीवन की समस्याओं का क्या निदान प्रस्तुत करता है, इसमें निहित जीवन सन्देश अपने रसात्मकता और कलात्मकता के बावजूद जीवन के अंतर्विरोधों और समस्याओं का वैज्ञानिक निराकरण प्रस्तुत करते हैं कि नहीं, कहीं लेखक अनजाने में, अपनी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद, अपने भाववादी दृष्टि के कारण कहीं, जीवनगत समस्याओं का भाववादी निराकरण तो नहीं प्रस्तुत कर रहा है.इस दृष्टि से मुक्तिबोध कामायनी से निराश ही होतें हैं. कहना न होगा कि इस दृष्टि से कामायनी को उनसे पहले किसी ने नहीं देखा था.
मुक्तिबोध के अनुसार ‘कामायनी’ की समस्याओं का मूल कारण प्रसाद जी का ‘मनु’ के प्रति मोहग्रस्त होना है। इसलिए ‘मनु’ के चरित्र का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता और वह प्रसाद जी के जीवन समस्याओं के प्रति दार्शनिक दृष्टि से संचालित होने लगते हैं। यह दृष्टि पतनशील सामंती व्यक्तिवादी दृष्टि से प्रभावित है।मनु नये के सृजन की अपेक्षा विगत के ‘वैभव’ के प्रति अधिक आकृष्ट दिखाई देते हैं, इसलिए कामायनी में मनु की चारित्रिक दुर्बलता बार-बार उभर आती है।मुक्तिबोध लिखते हैं “प्रसादजी मनु को कर्म-क्षेत्र से हटाकर रहस्यात्मक आनन्दवाद की स्थापना करते हैं, मानो उसकी कमजोरियों का सुधार(अथवा उसका पर्यवसान?) उस भाववादी ऐकान्तिक व्यक्तिवाद से ही हो सकता है। कर्मक्षेत्र के वास्तविक संघर्ष से मनु को भगाकर, हिमालयीन अंचलों में उसे नित्य लीला के, सर्वव्यापी चेतना के, दर्शन करवाये जाते हैं, और वह समस्त प्रकृति तथा समस्त जगत से सामरस्य का अनुभव करता है।” आगे मुक्तिबोध स्पष्ट करते हैं कि भले मनु “प्रसाद जी के किन्ही बहुत भीतरी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व” करता है मगर यह उनके व्यक्तित्व का “पूर्णतः प्रतिनिधित्व” नहीं करता। क्योंकि उनके साहित्य में “बहुत गौरवपूर्ण तथा भव्य” चरित्र भी हैं।
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के उद्भव और प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध समाजशास्त्रीय कारकों की महत्ता को स्वीकार करते हैं. वे भक्ति आन्दोलन के जनवादी प्रवृतियों के महत्त्व को स्वीकार करतें हैं, परन्तु भक्तिकाल के प्रचलित व्याख्या के अनुरूप निर्गुण शाखा को क्रन्तिकारी तथा सगुण रामभक्ति शाखा को एक तरह से प्रतिक्रियावादी, समझौतावादी घोषित करतें हैं. लेकिन ख़ुद वे इस स्थापना से भिन्न समग्रतावादी बातें भी करते हैं -“किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भक्तिभावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थति छिपी हुई थी.यहां यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि यह बात साधारण जनता और उसमें से निकलें हुए संतो की है, चाहे वे ब्राह्मण वर्ग से निकलें हों या ब्रमहेत्तर वर्ग से”.इस तरह मुक्तिबोध व्यापक संदर्भ में भक्ति आंदोलन की महत्ता को स्वीकार करते हैं.
दिनकर की ‘उर्वशी’ की आलोचना करते हुए मुक्तिबोध उसे ‘कृत्रिम मनोविज्ञान’ पर आधारित काव्य मानते हैं. दिनकर जी ने उसमे कामात्मक सम्वेदनाओं का जो प्रदीर्घ चित्रण किया है उसे वे सहज नहीं मानते, न ही सामान्य नर-नारी के बीच इस तरह कामात्मक अनुभवों की ‘खुली चर्चा’ होती है.कवि अवश्य इसे ‘प्रज्ञावान भोगियों’ के लिए कहता है,मगर मुक्तिबोध प्रश्न करते हैं; क्या ऐसा कभी होता भी है. उनका मानना है कि वे “ऐश्वर्यपूर्ण विलास चाहते हैं”उन्होंने दिखाया कि कवि अपने दर्शन के औचित्य के लिए जहां कथातत्व वेदों, पुराणों से लेते हैं, वहीं मध्यकालीन सिद्धों और तांत्रिकों के अन्धविश्वासपूर्ण महासुखवाद के मनोविज्ञान का आश्रय लेते हैं, फिर दोनों को एकीभूत करने का प्रयत्न करते हैं.
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[2017]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320