November 22, 2024

डॉ हूबनाथ पाण्डेय की कविता-

*ईद मुबारक!*

इस बार भी
शव्वाल का चांँद देखा
और उदास हो गया

इस बार भी
पूरे रमज़ान
रख नहीं पाया
पूरे रोज़े
हालांँकि फांँके किए
पूरे तीस रोज़

हर बार की तरह
इस बार भी
इबादत अधूरी रह गई
हालांँकि
नमाज़ अदा किए
पांँचों वक्त
पूरी पाबंदी से

जब भी
मन के किसी कोने में
उठते हैं
बुरे ख़याल
याद आती है
किसी की अदावत
रोज़ा टूट जाता है

जब भी
सोचता हूंँ कुछ ग़लत
या हो जाता हूंँ
ख़ुदग़र्ज़
रोज़ा टूट जाता है

जाने अनजाने
कर बैठता हूंँ
किसी का नुक़सान
या फिर मेरी वजह से
कोई भी होता है परेशान
रोज़ा टूट जाता है

जब बोलता हूंँ झूठ
देता हूंँ बददुआएंँ
या नहीं खड़ा हो पाता
इन्साफ़ के हक़ में
चुप रह जाता हूंँ
ज़ालिम के डर से
रोज़ा टूट जाता है

जब मेरी दुनिया
बंँटने लगती है
अशराफ़ और अज़लाफ़ में
मज़हब और ज़ात में
जब मेरा मज़हब बड़ा
दूसरा छोटा लगता है
मैं सबसे सच्चा
बाक़ी खोटा लगता है
तो रोज़ा टूट जाता है

मेरी निगाहों में
जब मरने लगती है शर्म
नहीं कर पाता
पूरी ईमानदारी से अपने कर्म

भले फांँके रखूंँ
पूरे तीस रोज़
अदा करूंँ नमाज़
पढ़ूंँ पाक क़ुरान
लेकिन
जब होता हूंँ
थोड़ा कम इन्सान
तो हर बार
रोज़ा टूट जाता है

हर बार
परवरदिगार के हुज़ूर में
होता हूंँ शर्मिंदा
ठीक से नहीं मना पाता ईद
क्योंकि
इस पूरे रमज़ान
मैंने एक भी नहीं बनाया
सच्चा इन्सान

इस बार
मैंने ख़ुद से किया है वादा
कि रमज़ान
सिर्फ़ तीस दिनों का
एक मुक़द्दस महीना नहीं

मेरी ज़िंदगी का
हर पल
अब से मेरे लिए रमज़ान है
यदि मेरी वजह से
किसी की ज़िंदगी में ईद हो
किसी के अश्क़
मेरी आंँखों को नम करें
किसी के ग़म
मेरी कोशिशें कम करें

किसी की भी भूख
न कर पाऊँ बर्दाश्त
मारूँ न किसी के हक़
मेरा इन्सान होना
ना हो नाहक़

तो शायद
मैं भी सिर उठाकर
सबको गले लगाकर
कह सकूंँ
*ईद मुबारक हो मेरे भाई!*

*-हूबनाथ*

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