दिलशाद सैफी की दो कविताएं
मैं स्त्री हूँ बस स्त्री रहने दो
नहीं बनना है मुझें बुद्ध, महावीर
न निर्वाण प्राप्ति की चाह है मुझें
इस मोह माया में बंधी हूँ, बंधे रहने दो
मैं स्त्री हूँ मुझे बस स्त्री ही रहने दो…!
नदियो सा जीवन है ये मेरा बहने दो
तुम उँडेल देते ढेरों कुरा करकट और
कहते गंदा है जल ,ये दर्द भी सहने दो
मैं स्त्री हूँ मुझें बस स्त्री ही रहने दो…!
प्यास मुझसे ही बुझेंगी तुम्हें जीवन मिलेगी
बहना है मुझे, तुम चाहे मेरी राहे मोड़ दो
भावों की इस अबाध गति में बहने दो
मैं स्त्री हूँ मुझे बस स्त्री ही रहने दो…!
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ह्रदय सागर सा कितना उसमें धीरज है
सीता के जैसे देती रहूंगी अग्नि परीक्षा मैं
जीवन पथ गरल सा, ही सही पीने दो
मैं स्त्री हूँ मुझे बस स्त्री ही रहने दो…!
कभी नही चाहती पाना ये सारी दुनिया
जहाँ मिला प्रेम, बसा लिया संसार वहाँ
चाह छोटी आसमान का एक कोना दे दो
मैं स्त्री हूँ मुझे बस स्त्री ही रहने दो…!
न धन न दौलत न दुनिया का ज्ञान
इस रुप रंग पर न, मुझको अभिमान
फिर भी ये जग कहे चतुर नार कहने दो
मैं स्त्री हूँ मुझे बस स्त्री ही रहने दो..।
आँचल में अपने दर्द अपार लिए
इन आँखो में अश्क़ हजार लिए,माँ,पत्नी
बेटी,बहन,प्रेमिका,सखी जिस रुप में हूँ रहने दो
मैं स्त्री हूँ मुझे बस स्त्री ही रहने दो..।
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निगाहें
निगाहे तर है, मेरी किसी की तलाश में
निगाहें मेरी किसे ढ़ूढ़ती हैं इन फिजा़ओ में
मेरी बेचैन रुह को तसल्ली नहीं एक पल
तेरे रुख़सार के दीदार की हसरत है हर पल
मेरी ख्वाहिश है, इस तलाश को मेरी
मुक्कम्मल सा आशियाना मिल जाए
बस तेरी एक निगाह का सवाल हैं अब तो
मशहूर मेरी भी ये मुहब्बत हो जाए
वैसे तो इन निगाहों में कई रंग सजे हैं
कुछ सब्ज, कुछ गहरे तो कुछ कोरे हैं
गर तुम भी मेरी इन निगाहों मेंआकर
एक बार समा जाओ तो दिल शाद हो जाए …।
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नाम – @ दिलशाद सैफी
रायपुर, छत्तीसगढ़