निसर्ग
“तत्वमसि” से उच्छवसित होकर “अहम् ब्रह्मास्मि” तक की ये जीवन-यात्रा भी बड़ी अद्भुत है ।यहाँ हर युक्त का वियुक्त होना निश्चित है । हर प्राप्ति अपनी निष्पन्नता के साथ ही प्रस्फुटित होती है । परंतु मन है कि सदा “क्या यह टिकेगा ” के त्रास से युक्त चिरस्थायित्व लालसा की मृग-तृष्णा में भटकता रहता है उसपर विडंबना यह कि अंततः अपनें भय (अंत,मृत्यु) में ही समाहित होकर विमुक्त भी होता है
कहते हैं मनुष्य की प्रकृति या मूलतत्व का निर्धारण उसके 6 से 8 वर्ष की आयु में ही हो जाता है। संभवतः यही कारण था कि देश-विदेश में भ्रमण करनें वाले मेरे सुविज्ञ पिता को अपनी एकमात्र पुत्री की प्रकृति का सदा से ही भान था।तभी तो वो दग्ध हृदय से प्रायः मेरे लिए एक कहावत कहा करते थे—
“सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है “😃
मेरी इस प्रकृति के लिए वो माँ को भी गाहे-ब-गाहे आगाह करते रहते थे कि कहीं प्रकृति की ये अतिमात्रा पुत्री का कोई अनिष्ट न कर दे। परंतु प्रकृति तो प्रकृति है अपनी सजगता व निरंतरता के प्रति तटस्थ और निरपेक्ष स्वमार्ग पर सतत् गतिशील । भला-बुरा विचारे बिना ही निकल पड़ती है किसी भी परिचित-अपरिचित का दुःख-दर्द हरनें, सँवारनें और स्वयं के लिए बहुधा कूट-प्रश्न, अशांति, दुविधा, संताप,गिरह जानें कितना कुछ एकत्र करके ही गंतव्य पहुँचती।
बाल्यावस्था के आरंभिक दिनों का एक वृतांत आज भी मुझे स्मृत है — माँ के गृह कार्यों में सहयोग करनें वाली स्त्री की आठ वर्षिय पुत्री “चंपा” मेरी प्रिय सखी बन गई थी और मैं तब कोई चार वर्ष की थी । हम साथ-साथ गुड्डे-गुड़िया के खेल खेलते, मिट्टी के बर्तन बनाते , पारिजात के पुष्प चुनते।माला बनाते। बीतते समय के साथ हमारी मित्रता और प्रगाढ़ होती गई । बताना यह चाहती हूँ कि प्रकृति (मेरी) अपनें गवाक्ष से जब प्रथम बार प्रस्फुटित हुई तो मैं कक्षा तीन की विद्यार्थिनी थी, मेरी वयस आठ वर्ष थी और चंपा सखी थीं 16-17वर्ष की अनपढ़ अपूर्व नवयौवना।
वो गर्मियों का मध्याह्न (दोपहर) था। जब मैं अपनें बगीचे में आम के टिकोरे बीननें निकली थी और मुझे दीवार पार किसी के सुबकनें की प्रतिध्वनि सुनाई दी । झाँक कर देखा तो चंपा सखी मुँह में साड़ी का पल्लू ठूँसे बिलख रही थीं । बस चट दीवार फांद कर मैं भी बगल में उत्सुकता वश जा सटी कि ऐसा भी क्या हुआ जो परम प्रिय सखी इतनी दुखित हैं । व्यथा-कथा सुन कर मुझ छोटी बच्ची को इतना ही विदित हुआ कि सखी के प्रणयी-प्रियतम का विवाह अन्यत्र हो रहा था बस बिछोह के इसी दुख से कातर थीं । दुखित हृदया नें ब्लाउज़ के किसी अदृश्य, प्रच्छन्न खोह से कागज़,कलम निकालते हुए मुझसे पूछा कि तुम तो अब लिखना सीख गई हो न ,क्या मेरे लिए एक ‘पुर्जी ‘ लिख दोगी? सखी के दुख से व्यथित मैंने भी चट-पट हाँ कर दी और यथानुसार शब्द जोड़-जाड़ कर लिख दिये । अभी ‘पुर्जी’ पढ़ कर सुना ही रही थी कि पिता का कड़क, रौबदार स्वर गूँजा—
यहाँ क्या कर रही है लड़की?
स्वर सुनते ही चंपा सखी तो झट्ट अपनी पुर्जी मेरे हाथों से लपक कर चौकड़ी भरती पलाइत हुईं और मैं जड़वत पिता के तीक्ष्ण, दुर्नम्य प्रश्नों के समक्ष उपस्थित थी। उन्हें सत्य और संक्षेप में बताया कि सखी के सखा हेतु पुर्जी लिख रही थी उसका ब्याह अन्यत्र हो रहा है तिसपर चंपा सखी अत्यंत दुखित हैं । 😔😃
अब बारी पिता की थी क्रोध से उनका सर्वांग फड़क उठा कदाचित राजपुताना दंभ भी आहत हुआ था। बिफर ही पड़े मुझपर मूर्ख की बच्ची, हकीम लुकमान की आजी बनी है, पुर्जी लिख रही है। दुखित हृदयों के पीर हरनें को यही जन्माई गई है। उठ यहाँ से यदि फिर देखा उस लड़की के साथ तो तेरी ख़ैर नहीं ।
हाथों से पकड़ कर लगभग घसीटते हुए माँ के समक्ष उपस्थित की गई ,
लीजिये सम्भालिए इसे उस ‘खटकिन’ की बेटी के न जानें किस प्रेमी का प्रेम-पत्र अपनें हाथों लिख आई है आपकी सुलक्षणा पुत्री ।
माता-पिता के क्रोध और बड़े-बड़े कथनों से ही पहली बार मुझे ज्ञात हुआ कि कोई भारी त्रुटि की है मैंने । स्वनुसार तो पीड़ पराई ही हरनें गई थी परंतु ले कर लौटी स्वयं के लिए आक्षेप, कूट प्रश्न, असमंजस ।
सच कहती हूँ भोलेनाथ की सौगंध तब से प्रकृति के शह और मात की ये उच्छृंखल क्रीड़ा अपनी निरंतरता के लिए आज भी पूर्ववत बाध्य है। भला विधि का लिखा भी परिवर्तित किया जा सकता है ।😅
आयु के इस पड़ाव पर बाल सखियाँ कहती हैं गणित के गूढ़ प्रश्नों को भी एक बार मात देना संभव है अलका पर तुम्हारी इस अन्तर्निहित समस्या का कोई इतिसिद्धम् कदापि संभव नहीं ।
अंततः अनेक आक्षेपों-प्रत्याक्षेपों के मध्य मेरी एक और नव सृजित मूर्खता के नाम चियर्स करती सुरमई जीवन-संध्या हमारे ठहाकों के उन्नत उद्घोष से गुंजायमान हो उठती है। सभी सखियाँ एक सुर में कह पड़ती हैं “सारे जहाँ का दर्द इसके जिगर में है।”😃😅
अलका —–