आकांक्षा तिवारी “वर्षा” की कविताएँ
संघर्ष
जन्म से मृत्यु पर्यन्त
करता है तू संघर्ष
तब तो तूने जीवन
जीया भरपूर।
मां की कोख में
नन्हे अंकुर से लेकर
दुनिया में आंख खोलने
शैशव, बाल्यकाल
किशोरावस्था से लेकर यौवन की
दहलीज पर इठलाते
हर कदम अस्तित्व को बचाए रखने
अधेड़ से लेकर बुढ़ापे तक
मानवीय मूल्यों के साथ संभालकर
हरदम हरकदम
ज्यों ज्यों हम बढ़ते
नित नए प्रतिमान गढ़ते
त्यों त्यों संघर्ष की सार्थकता
हमें देती पूर्ण तृप्ति-संतृष्टि
और हो जाते हम पंचतत्व में विलीन
एकबार फिर जीवन चक्र में
प्रवेश के संघर्ष
निमित्त तैयार।
हालात
अजब से हालात हुए हैं,समझ में आता नहीं
ये चक्र-कुचक्र सूक्ष्म इतना है,नजर में आता नहीं
हम उलझ कर रह गये हैं,सुलझ पाता नहीं
अजब से हालात हुए हैं,समझ में आता नहीं।
ना है कहर द्रोणिका का,ना तो चक्रवात कहीं है
ना ज्वालामुखी फटा है, ना ही भूकंप आया है
ना ही सागरअपनी सीमाएं लांघी,ना तो बादल ही रोया है
ना तो किसी को सताया है,ना ही किसी का बुरा ही चाहा है
सदी भर बाद ये कैसा मंजर आया है, दुःख ही दुख है
रो रहा जग ये सारा है, त्रासदी कितनी बड़ी है
अपनो को कफन देना तो दूर,पास भी जा पा रहे नहीं हैं
ये उलझन सुलझेगी कैसे,ना कोई बता पा रहे हैं
बस दूर रहने और साफ-सफाई के पुराने संस्कार
एकबार फिर से हमारे काम आ रहे हैं।
फिर भी कहीं उम्मीद है,मिलकर सुलझा ही लेंगे
ऐ उलझन तुझे हम सब हरा ही देंगे
प्रकृति भी देगी साथ हमारा ,जो हमने हिम्मत ना हारी
हां हम मानव हैं एक दिन तुझे घुटनों पर बैठा ही देंगे।।
_आकांक्षा तिवारी “वर्षा”
स्वरचित मौलिक