यह देश हुआ नंगा
नवगीत – अक्षय पाण्डेय
महाराज सोये हैं भीतर
बाहर है दंगा,
औरत नंगी नहीं हुई
यह देश हुआ नंगा।
हम अपने उजले अतीत को
हर पल गाते हैं,
नैतिकता के पावन जल में
रोज़ नहाते हैं,
हम रहते हैं वहाॅं ,जहाॅं पर
बहती है गंगा।
कुटिल हॅंसी हॅंसता ॲंधियारा
ऑंखों में फैला,
गहरा काला रंग
पुनः कर गया समय मैला
हुई कठिन पहचान
यहाॅं हर चेहरा है रंगा।
किसका संबल गहे द्रोपदी
टूटा हर कंधा,
खींच रहा है चीर ‘दुशासन’
राजा है अंधा,
ऐसे में कैसे कह दें
है वक़्त भला-चंगा।