आलोचक का स्वदेश : नंददुलारे वाजपेयी की जीवनी
हिंदी आलोचना में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ( 1906-1967)का स्थान आचार्य रामचन्द्र के बाद की पीढ़ी में आता है। वे काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में उनके छात्र भी रहे हैं। वाजपेयी जी की प्रतिष्ठा मुख्यतः छायावाद को प्रतिष्ठित करने करने में माना जाता है। छायावाद को मान्यता दिलाने, उसके पक्ष समर्थन में लिखने के कारण एक तरह से उन्हें ‘स्वच्छंदतावादी आलोचक’ भी कहा जाता है। छायावाद की ‘वृहत्त्रयी’ का सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रयोग किया और उसमे निराला, पंत और जयशंकर प्रसाद जी को रखा, जो बाद में काफ़ी चर्चित हुआ।
1927-28 से 1966-67 तक के लगभग चालीस वर्षों के उनके लेखन में छायावाद के अलावा प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता के अलावा सूरसागर, रामचरित मानस का सम्पादन, प्रेमचंद, निराला, पंत, रस सिद्धांत पर किताब के अलावा अपने समय के अधिकांश लेखकों, वैचारिक बहसों पर उनके समीक्षात्मक निबन्ध हैं जो किताबों में संग्रहित हैं। उनकी किताबों में ‘हिंदी साहित्य बीसवीं शताब्दी'(1942), ‘आधुनिक साहित्य'(1950), ‘सूरदास’ (1953), ‘प्रेमचंद:एक साहित्यिक विवेचन(1953, छात्रोपयोगी), ‘नया साहित्य :नए प्रश्न'(1955), राष्ट्र भाषा की कुछ समस्याएं(1961), ‘कवि निराला'(1965) तथा मृत्युपरांत ‘कवि सुमित्रानन्दन पन्त'(1997), रस सिद्धांत नए संदर्भ(1997), नयी कविता(1997) प्रमुख हैं। 1928 में ‘माधुरी’ में छपा ‘सत्समालोचना’ को उनका प्रथम समीक्षात्मक लेख माना जाता है।
वाजपेयी जी अवध प्रान्त (गांव मगरायर, जिला उन्नाव,उ.प्र.) के थे। अवध क्षेत्र के साहित्यकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला तथा डॉ रामविलास शर्मा प्रमुख हैं। संयोग से तीनो से वाजपेयी जी का सम्बन्ध रहा। निराला से मित्रता और आलोचक का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा।निराला के लिए जो आलोचनात्मक संघर्ष रामविलास जी ने बाद के दशकों में किया, उसकी शुरुआत वाजपेयी जी ने की थी। तीस के दशक में छायावाद को स्थापित करने में उनका महत्वपूर्ण आलोचनात्मक योगदान है। उन्होंने उस समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे विद्वानों से वैचारिक बहस किया।
इसी समय (1930-32) वे अर्ध साप्ताहिक ‘भारत’ के सम्पादक रहें। निराला से उनका परिचय सन 24 से था,इसके पूर्व भी वे उनकी रचनाएं पत्रिकाओं में पढ़ चुके थे। धीरे-धीरे यह मैत्री प्रगाढ़ होती गई।इसी तरह प्रसाद और पंत से भी उनका परिचय बढ़ता गया। शुक्ल जी से उनके मतभेद का मुख्य आधार जीवनीकार श्री विजय बहादुर सिंह के अनुसार “छायावाद एक नए काव्य-युग की शुरुआत है, इसे शुक्ल जी जैसे महान साहित्याचार्य स्वीकार करने को तैयार न थे। भक्तिकाल के महान कवियों से अंतर्दृष्टि ग्रहण करने वाले, प्रबंध काव्य शैली को श्रेष्ठ मनाने वाले ‘आचार्य’ को प्रसाद-निराला आदि की रहस्योन्मुख गीति(प्रगीत) कविता का परिदृश्य उतना गंभीर, विशिष्ट और प्रस्थानकारी नहीं जान पड़ता था। कभी-कभी तो वे उसे एक अनूठी काव्य-शैली मात्र ही मानते ।”(पृ.54)
यह बात स्प्ष्ट है कि शुक्ल जी ने छायावाद का विरोध किया। अवश्य इसमे उनके अपने कुछ लोकादर्श थे, कुछ उसको सीमित अर्थ में लेने के कारण भी। लेकिन उनका मुख्य विरोध उसके रहस्यवादी प्रवृत्ति से था। इस सम्बन्ध में डॉ रामविलास शर्मा ने ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना में लिखा है “शुक्ल जी ने छायावाद का विरोध किया, इसके पीछे भी यथार्थ मानव जीवन से उनका प्रेम था। वह साहित्य को परोक्ष-चिंतन, रहस्यवाद, अटपटी और दुरूह शैली से बचाना चाहते थे; भाग्यवाद, निराशावाद और पच्छिमी कविता के पतनशील रुझानों से हिंदी साहित्य के जातीय परंपरा की रक्षा करना चाहते थे। जहां छायावादी कवि रहस्यवाद और निराशावाद से बचकर यथार्थ जीवन का चित्रण कर सके हैं, वहाँ शुक्ल जी ने बराबर उन्हें सराहा है, जहाँ वे इन गलत रुझानों से प्रभावित हुए हैं, वहाँ बराबर उनका विरोध किया है, अपने इतिहास के अंतिम संस्करण में यह विरोध कायम रखा है।”(पृ. 159)
वाजपेयी जी और शुक्ल जी के इस वैचारिक मुठभेड़ में कुछ तल्खियां अवश्य रही होंगी, इसलिए जब जीवनीकार इस बात को प्रश्नांकित करता है कि शुक्ल जी ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में वाजपेयी जी का नामोन्नलेख क्यों नहीं किया; तो यह उचित जान पड़ता है, क्योंकि सन चालीस तक वाजपेयी जी की आलोचक के रूप में अच्छी पहचान बन चुकी थी। बाबजूद इसके वाजपेयी जी ने शुक्ल जी के ऐतिहासिक योगदान को स्वीकारा और सराहा है; और उन्हें युग-प्रवर्तक कहा है।
‘भारत’ के सम्पादन काल(1930-32) में वाजपेयी जी की बनारसीदास चतुर्वेदी से बहस हुई। चतुर्वेदी जी निराला का बराबर विरोध कर रहे थे। जब निराला ने ‘भारत’ में ‘वर्तमान धर्म’ नाम से लेख लिखा तो चतुर्वेदी जी ने उसके विरोध में ‘साहित्यिक सन्निपात’ लिखा था। वाजपेयी जी ‘भारत’ के सम्पादक थे, इसलिए निराला के साथ-साथ उन्होंने भी चतुर्वेदी जी को जवाब दिया।इसकी परिणति पर जीवनीकार ने ‘निराला की साहित्य साधना -भाग एक’ से रामविलास जी का उद्धरण दिया है “नंददुलारे वाजपेयी ने दस-बारह बार मौके-बेमौके उन पर आक्षेप किए थे जिससे उन्हें ‘काफी मानसिक पीड़ा’ हुई थी। निराला ने भी माधुरी, भारत आदि में उनके विरुद्ध लिखा था।’ बनारसी दास चतुर्वेदी निराला को तो ‘सुधा’ से नहीं निकलवा पाए पर नंददुलारे वाजपेयी को बालकृष्ण राव के पिता सर सी.वाई. चिंतामणि पर जोर डलवा कर भारत से अवश्य निकलवा दिया। वाजपेयी बेकार हुए, नई धारा के एक प्रबल समर्थक का मुंह बंद कर दिया गया।”(पृ.185)
‘भारत’ के सम्पादन काल में ही वाजपेयी जी की प्रेमचंद से वैचारिक बहस हुई। एक तो हंस के आत्मकथांक के संदर्भ में हुई। इसका कारण वाजपेयी जी के ही शब्दों में “मेरी मान्यता थी कि आज साहित्य में आत्मकथा की नहीं साधना की आवश्यकता है। जबकि प्रेमचंद जी कहते थे लेखक ही नहीं, एक सामान्य मजदूर के जीवन की भी एक प्रेरणात्मक कथा हो सकती है।” इसी तरह वाजपेयी जी प्रारम्भ में प्रेमचंद की रचनाओं में स्थूल यथार्थ अथवा उपदेशात्मकता देखते थे, लेकिन बाद में उनके विचारों में बदलाव आया। खासकर गोदान के प्रकाशन के बाद। आगे उन्होंने प्रेमचंद पर पुस्तक भी लिखी।
जीवनी का एक अध्याय ‘नामवर प्रसंग’ है, जिस पर काफी बहस भी हुई है। नामवर जी काशी विश्वविद्यालय से निष्कासित होने पर 1959 में सागर विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए थे। वाजपेयी जी विभागाध्यक्ष थे। अपने आत्मकथात्मक आलेख ‘जीवन क्या जिया’ में नामवर जी लिखते है कि “सचमुच वाजपेयी जी ने विरोध किया था। चयन समिति में पंडित जी के अलावा धीरेंद्र वर्मा जी थे, उन्होंने और द्वारिका प्रसाद मिश्र जी ने मुझे वाजपेयी जी के घोर विरोध के बावजूद चुन लिया”। आगे वे भोपाल प्रगतिशील लेखक संघ के विशेष सम्मेलन का जिक्र करते हैं जहां हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की अनुपस्थिति में उन्हें अध्यक्षता का दायित्व सौंप दिया गया। नामवर जी के अनुसार “वाजपेयी जी को यह बात बहुत ही नागवार लगी। उनके ही विभाग का एक लेक्चरर, रीडर भी नहीं, अध्यक्षता करे और और उनकी बातों का खंडन भी करे, यह गुस्ताखी!” फिर अगले दिन की घटना का जिक्र करते हैं जिससे प्रतीत होता है फिर नामवर जी का व्यक्तव्य वाजपेयी जी को चुभ गई होगी और “तमतमाया चेहरा लिए वाजपेयी जी दोपहर को ही लौट गये।” नामवर जी के कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वाजपेयी जी उनके आक्रमक मार्क्सवादी दृष्टिकोण को पसंद नहीं करते रहे होंगे ;और आगे नामवर जी के अनुसार वाजपेयी जी ने उनकी पदस्थापना को कन्फर्म नहीं किया “वाजपेयी जी ने रिपोर्ट में लिख दिया कि कन्फर्म न किया जाय।” और इस तरह सागर से भी उनका निष्कासन हो गया।
इस प्रसंग में जीवनीकार वाजपेयी जी के पक्ष में तर्क रखते हैं और नामवर जी के बातों से असहमति जताते हैं। मसलन वाजपेयी जी का प्रगतिशील(मार्क्सवादी) विचार से असहमति भले रही हो लेकिन वे वैचारिक असहमति का सम्मान करते रहे हैं।वे चर्चित मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा को उज्जैन लाने का प्रयास कर रहे थे। वे सन 43 से सन 47तक काशी प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे थे, राहुल जी और नागार्जुन से उनकी आत्मीयता थी। इस तरह के और कई उदाहरण दिए हैं।
इन सब बातों से सामान्य पाठक के लिए ‘सत्य’ की पड़ताल करना कठिन होता है। यों ‘सत्य’ सापेक्षिक भी होता है।कोण और बलाघात के अंतर से। परस्पर विरोधी तर्कों में हम अपनी ‘पसन्द’ के तर्कों पर अधिक बल देते हैं। वाजपेयी जी और नामवर जी दोनो सक्षम आलोचक रहे हैं, दोनों का हिंदी आलोचना में अपना स्थान है।मगर इतना तो स्प्ष्ट है वैचारिक असहमति रही है और नामवर जी को ‘कन्फर्म’ नहीं किया गया था। वाजपेयी जी प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े, फासिज़्म और रूढ़िवाद के विरोध में रहें, मगर वे प्रगतिशील साहित्य के ‘राजनीतिक लगाव’ को वे पसन्द नहीं कर रहे थे, इसलिए उनकी आलोचना में जगह-जगह ‘वाद ग्रस्तता’ का विरोध दिखाई देता है। यह लिखने के बावजूद भी कि “मार्क्सवादी समीक्षा- पद्धति एक प्रकार का संश्लिष्ट ऐतिहासिक विवेचन तो हमे देती ही है, वह सामाजिक विकास के कई महत्वपूर्ण तथ्यों और प्रवृत्तियों को भी सामने लाती है।”(पृ.283) वे अधिकतर प्रगतिशील साहित्य पर ‘वाद विशेष’ या ‘वादग्रस्तता’ का आरोप लगाते हैं “अनेक जटिल मानसिक पद्धतियों के समुच्चय से निर्मित वाला काव्य किसी वाद विशेष का स्थूल प्रतिरूप तो नहीं हो सकता”(पृ.279) अथवा “काव्य और साहित्य अनुभव और उद्भावना की वस्तुएं हैं, वे वादों या विचारों के आश्रित नहीं की जा सकती”।(पृ.279)बात अपनी जगह सही है मगर न तो अधिकतर प्रगतिशील रचनाकार और आलोचक रचना को विचारों का स्थूल प्रतिरूप मानते हैं, न ही रचना विचार विहीन होती है। इसे द्वंद्वात्मक दृष्टि से ही देखा जा सकता है। एक बात और जो वाजपेयी जी के सन्दर्भ में भले सही न हो आज भी प्रगतिशील साहित्य के विरोधी जब ‘वादग्रस्तता’ की बात करते हैं तो उनके ज़ेहन में केवल मार्क्सवाद होता है। मानो कुलीनतावाद, छद्म राष्ट्रवाद, फासीवाद , कलावाद आदि कोई वाद ही न हो।
जीवनीकार वाजपेयी जी के छात्र रहे हैं; इसलिए उनके प्रति लगाव स्वाभाविक है। जहां तक हमारी जानकारी है यह सही है कि वाजपेयी जी के लेखन पर पर्याप्त काम नहीं हुआ है, जो कि होना चाहिए। जीवनीकार ने स्वयं जीवनी लिखकर एक बड़ा काम किया है, क्योंकि इसमे वाजपेयी जी के जीवन के अलावा उनके सरोकारों,प्राथमिकताओं, आलोचनात्मक दृष्टकोण को रेखांकित किया गया है।वे आगे और भी उनके योगदान को रेखांकित कर सकते हैं। मगर इसके लिए पूर्ववर्ती अथवा आज के आलोचकों पर दोष मढ़ना उचित नहीं जान पड़ता। हर लेखक अपनी दृष्टि और पसन्द की सीमा में कार्य करता है। हम उसकी सीमा को तो रेखांकित कर सकते हैं मगर उससे ‘हर कार्य’ करने की अपेक्षा नहीं रख सकते। इस सम्बन्ध में हमे लगता है कि जीवनीकार ने कई जगह अतिकथन का सहारा लिया है। मसलन “उनसे असहमत और उनके विरुद्ध षड्यंत्र में लगे और कुप्रचार करने वाले आलोचक भी अब तक यह हिम्मत नहीं जुटा सकते हैं कि ‘वृहतत्त्रयी’ की इस स्थापना को चुनौती दें और खंडित करें।” (पृ.77)यदि कोई आलोचक इस स्थापना को सही मानता है तो उसे चुनौती क्यों देगा ? इसी तरह एक जगह लिखते हैं “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को छोड़कर तत्काल बाद और और काफी बाद आने वाले लोकविदित आलोचकों में न तो ऐसी विवेक प्रखरता दिखाई देती है, न सम्यक तटस्थता ही। वे सब या तो अपने वरिष्ठों का सामना करने से बचते हैं या उनकी हां में हां मिलाते और हुंकारी भरते दिखाई देते हैं।”(पृ.51)वाजपेयी जी के तत्काल बाद और काफी बाद आने वाले आलोचकों में डॉ रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, रांगेय राघव, नामवर सिंह आदि हैं। रामविलास जी तो समय की दृष्टि से वाजपेयी जी के काफी निकट पड़ते हैं। मानना पड़ेगा इनमें ‘न तो ऐसी विवेक प्रखरता थी’ न ये अपने वरिष्ठों की सामना करते थे बल्कि उनके हां में हां मिलाते थे और हुंकारी भरते थे! इस तरह के पुस्तक में कई कथन हैं।
एक आलोचक के रूप में वाजपेयी जी की वैचारिकता कहां पर है।इस सम्बन्ध में लेखक ने लिखा है “वे न तो पश्चिम के अन्धविरोधी हैं, न अन्धानुगामी। एक लेखक के रूप में उनका स्वदेश उस ‘राष्ट्रीयता’ का है जिसके मूल में सामूहिकता और मानववादी चेतना सक्रिय है। यह वही भूमि है जिसका आग्रह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने निबंधों और नन्ददुलारे वाजपेयी अपनी इन आलोचनाओं में करते चल रहे हैं।”(पृ.241) उचित ही वाजपेयी जी को गांधीवाद के करीबी आलोचक माना जाता है। जीवनीकार के अनुसार भी “राजनीति में यह उदात्तता अथवा उदात्त मानवीय बोध उन्हें सिर्फ गांधी में दिखाई देता है”(पृ.286)
लेकिन इस जीवनी में इन बहसों के अलावा भी बहुत कुछ है।लेखक ने अट्ठाइस अध्यायों मे वाजपेयी जी के बचपन के परिवेश,परिवार के वैचारिक पृष्टभूमि उसका प्रभाव, काशी विश्वविद्यालय में अध्धयन काल, विश्वविद्यालय और शिक्षकों खासकर बाबू श्याम सुंदर दास का सन्निध्य और प्रभाव, शोध, विश्वविद्यालय में अध्यापन, ‘भारत’ का संपादन, सुर-तुलसी का सम्पादन, निराला, प्रसाद, पन्त से उनके सम्बन्ध और लेखन, निराला साहित्य के लिए उनका संघर्ष, सागर विश्विद्यालय में अध्यापन से लेकर उज्जैन विश्व विद्यालय में उनके कुलपति होने तथा और उनके निधन(1967) तक के जीवन प्रवाह तथा इस बीच उनके लेखन और प्रकाशित पुस्तकों का न केवल विवरण दिया हैं अपितु उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन भी किया है।
निश्चित रूप से वाजपेयी जी के व्यक्तित्व और उनके आलोचनात्मक विवेक को समझने के लिए यह पुस्तक उपयोगी है।
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* नामवर जी का आलेख ‘जीवन क्या जिया’ के लिए देखें ‘तद्भव’ अंक-25, (2008)
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पुस्तक- आलोचक का स्वदेश : नंददुलारे वाजपेयी की जीवनी(2008)
प्रकाशन- अनामिका पब्लिशर्स, नई दिल्ली
लेखक- श्री विजय बहादुर सिंह
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[2020]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320