धान रोपना भी एक कला है
धान रोपना भी एक कला है
यह नहीं कि रोपा हाथ में पकड़ा और गाड़ दिया
पूरी ताकत से खेत की मिट्टी में!
जिस वक्त रोपा लगाने के लिए झुकी हुई होती हैं स्त्रियां खेत की मिट्टी व्याकुल रहती है
उनके हाथों के स्पर्श के लिए
खुरदुरे, मोटे, बेडौल हाथ जिनके नाखूनों में भरा होता है सालभर का खाद!
यह खाद दुःख के पक जाने, उनकी देह में घुल जाने उनकी आत्मा में झर कर जमा हो जाने पर बनाता है!
वह हँसती हुई एक दूसरे को धान का रोपा दे मारती हैं
कोई कहानी, कोई चुगली, कोई प्रश्न करती हुईं
बड़ी सावधानी से रोपती जाती हैं
धान के खेत में अपना दुःख!
इनका चेहरा हल्बी भाषा की इस पहेली की तरह दूर से चमकता हुआ दिखाई देता है जैसे
“पानी भितरे फूल डोबला”
धान रोपती स्त्रियां
खर-पतवारों को मिट्टी से अलग करते हुए भी कड़ाई से बरती हैं सारे नियम
धान रोपती स्त्रियां खेत के भीतर इतने हौले से रखती हैं
अपना पाँव कि खेत की मिट्टी गुदगुदा उठती है!
धान रोपती स्त्रियां धान नहीं रोपती, रोपती हैं अपने लिए धरती जैसा एक ग्रह जहाँ वह उपग्रह की भांति भटकती रहना चाहती हैं ताउम्र!
धान रोपती स्त्रियां कभी भी लिख सकती हैं
शोषण, समाजिक पतन, स्त्री मन की पीड़ा,
बारिश, धरती, मिट्टी, भूख, प्यास, हवा, पानी,
पर्यावरण पर अच्छी कविताएँ
यह आसान रास्ता है उनके लिए
अपने पैरों के नीचे पहाड़ का आधा भाग दबाये रखने का!
पर धान रोपती स्त्रियों ने मिट्टी में धंसकर कोई लोकगीत गाना स्वीकार किया
याद किया किसी लोकनायिका की तनी हुई तलवार को
याद किया मुठ्ठीभर चावल के लिए मची हुई क्रांतियों को!
कागज पर लिखी कविताएँ हल्की बारिश
में गल जाती हैं
धान की फसल बारिश को मुँह चिढ़ाती हुई
तनकर खड़ी हो जाती है!
धान रोपती स्त्रियां यह बात जानती हैं
कविताओं से ज्यादा
भूख ने मचाई है तबाही
धान रोपती स्त्रियां रोपती हैं देह की ऊर्जा, आत्मा की संतुष्टि, मन का सुकून
और सौंपती हैं धरती को धरती माँ कहलाने का गुरुर!
पूनम वासम
“पानी भितरे फूल डोबला” – (फेन) सफेद झाग एक जगह जमा होकर जब बहता है तो वह दूर से किसी सफेद फूल की तरह दिखाई देता है, लगता है नदी, नाले में खूब सारे सफेद फूल एक साथ खिल उठे हैं, परन्तु पास जाने पर यह भ्रम टूटता है।