भरोसा
गुब्बारे जब तक बंधे थे धागे से
गुलाम थे
अगल-बगल झांकने के सिवा
कुछ भी नहीं कर सके
हवा के झोंके से एकाएक धागा टूटा
सभी बहुत ऊंचा उड़े
उड़ते ही गए
इतने ऊपर
जहां कोई देख भी न सके
हां उसने अंत तक जरूर देखा
जिसके थे वे
आंखें गड़ाकर
हाथ उठा-उठा कर
बुलाने की कोशिश की
दुख में भूल गया
ये पालतू मवेशी नहीं
न ही उसके दास
कुछ इसी तरह सोचते हुए
हाथ मलते हुए घर लौटा
फिर अपने कबूतरों को
भरपेट दाना दिया और प्यार किया
एक ठहरी हुई सांस खींची
इस उम्मीद से कि
इन पर संदेह करना ठीक नहीं
*नरेश अग्रवाल*