रक्षा बंधन पर उन भाइयों के लिए, जिनकी कलाई सूनी रह गई….
“सूनी कलाई”
राह तकती है तुम्हारी,
आज यह सूनी कलाई….
स्मृति बस स्मृति ही ,
शेष है सूने नयन में
बिम्ब दिखता है तुम्हारा,
आज मधु मंजुल सुमन में
यूँ लगा कि द्वार खुलते
ही मुझे दोगी दिखाई
राह तकती है तुम्हारी
आज यह सूनी कलाई…
आरती की थाल कर में
दीप आशा का जलाये
इस धरा पर कौन है जो
नेह की सरिता लुटाये
श्रावणी वर्षा हृदय में
आज मेरे है समाई
राह तकती है तुम्हारी
आज यह सूनी कलाई…
रेशमी धागों की अब भी
इस कलाई पर छुअन है
हो रहा अहसास कि
नजदीक ही मेरी बहन है
वह प्रतीक्षा कर रही है
हाथ में थामे मिठाई
राह तकती है तुम्हारी
आज यह सूनी कलाई…
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़
(काव्य संग्रह – चैत की चंदनिया से)