November 22, 2024

कुम्भलगढ़ ऐतिहासिक स्थल…

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मालिनी गौतम

मैं इन दिनों बावन देवरी के प्रेम में हूँ। जगह के प्रेम में होना कोई ऐसी अनुभूति तो नहीं ही है जो पहले कभी घटित न हुई हो…मैं आकंठ संतरामपुर के प्रेम में तो रहती ही हूँ। सखी Ruchi रहती है इलाहाबाद के प्रेम में और रमैया Rama दिल्ली के प्रेम में…ये हम सबके महबूब शहर/गाँव हैं । लेकिन बावन देवरी से प्रेम का किस्सा कुछ अलग है। बीते दिनों परिवार के साथ कुम्भलगढ़ की एक छोटी तीन दिवसीय यात्रा पर जाना हुआ। आदत के मुताबिक निकलने से पहले कुम्भलगढ़ को नेट पर विस्तार से जानने की कोशिश की। जिसमें रास्ते, देखे जाने वाली जगहें, वहाँ का इतिहास वगैरह शामिल था। यूँ भी कुम्भलगढ़ ऐतिहासिक स्थल है…अपने विशाल और अभेद्य दुर्ग के लिए प्रसिद्ध। कुम्भलगढ़ आने वाला हर व्यक्ति यह दुर्ग देखने ही आता है, तो इसे तो देखना ही था…लेकिन मुझे हर यात्रा में वे स्थल बहुत लुभाते हैं जहाँ तक कम लोग पहुँचे हों…जहाँ पहुँचना थोड़ा दुर्गम हो … जो आपके धैर्य को चुनौती देते हों..आपको थकाते हों। बहरहाल कुम्भलगढ़ के चित्रों को देखते समय एक चित्र जो आँखों में बस गया वह था बावन देवरी..नेट पर कुछ विशेष मिला नहीं इस विषय में, लेकिन अपनी अद्भुत सरंचना के कारण इस इमारत ने मुझे आकर्षित किया था।
तो हम पहुँच गए सुबह 9 बजे कुम्भलगढ़ किले पर । इस किले का निर्माण सम्राट अशोक के पौत्र जैन राजा सम्प्रति द्वारा ईसा से दौ सौ वर्ष पूर्व में किया गया था। इस किले के चारों तरफ़ 36 किलोमीटर लंबी और 21 फुट चौड़ी दीवार है जिस पर 8 घोड़े एक साथ दौड़ सकते हैं। विश्व में चीन की दीवार के बाद यह दूसरे क्रम पर आती है। ऐसी मजबूत और विशाल दीवार को देखना ही एक रोमांचक अनुभव था। वर्ष 1443 – 1458 में इसी किले के अवशेषों पर राजा कुम्भा द्वारा किले का पुनर्निर्माण हुआ और इस किले का नाम पड़ा कुम्भलगढ़।

बहरहाल हमने दीवार के अंदर पहुँच कर किले की तरफ़ चढ़ाई शुरू की। चारों तरफ़ अद्भुत प्राकृतिक नज़ारे.. जैसे जैसे ऊपर चढ़ते गए कोहरा ही कोहरा और शब्दों में बयां न किया जा सके ऐसा सौंदर्य। यूँ भी मुझे तो बात करनी है बावन देवरी की, किले की कहानी अलग से कभी कहूँगी। तो राजा कुम्भा के महल को देखते हुए, तोपखाना, अस्तबल, बावड़ी और भी तमाम अवशेष देखते हुए हम पहुँचे सबसे ऊपर बादल महल पर और फिर नीचे भी उतर आए। दो घण्टे तो लगे ही होंगे। उतरते समय नीचे फैले हुए विशाल क्षेत्र में न जाने कितने ही छोटे -छोटे महल और मंदिर जैसी आकृतियां दिखाई दे रही थीं। कहते हैं कि किले के इस परकोटे में कुल 360 मंदिर थे जिसमें से 300 जैन मंदिर थे। मैं नीचे उतरते हुए चारभुजा मंदिर में गई और वहाँ बैठी हुई लड़की से पूछा बावन देवरी किधर है।लड़की बोली वहां तो कुछ देखने जैसा नहीं है …बस बावन डोम हैं और वहाँ कोई नहीं जाता… इतनी दूर आप भी नहीं जा पाएँगी।
किले से नीचे उतर कर हम उस ओर चल दिए जहाँ कुछ अन्य मंदिर दिखाई दे रहे थे…पार्श्वनाथ मंदिर, वेदी मंदिर, नीलकंठ महादेव मंदिर…यहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी अच्छे से बना हुआ था..और लोगबाग भी यहाँ तक जा रहे थे। ये इमारतें हमारे स्वर्णिम इतिहास की धरोहर हैं, जिनकी और अधिक देखभाल की जानी चाहिए। मगर राजस्थान सरकार के हस्तगत होने के कारण उदयपुर पैलेस और कुम्भलगढ़ दुर्ग की देखरेख का अंतर स्पष्ट समझ में आ रहा था।
महादेव के दर्शन करके एक स्थानीय स्त्री से पुनः पूछा कि बावन देवरी कहाँ है…वहाँ जाने का कोई रास्ता है या नहीं…उन्होंने बताया वहाँ बस इमारत है, अब कोई मूर्ति नहीं और कोई वहाँ जाता भी नहीं। तीन किलोमीटर दूर होगा।
मगर मेरी जिद थी तो हम सब चल दिए। कुछ दूर पत्थर जड़ा ठीकठाक रास्ता मिला….जहां जैन मंदिर 1…जैन मंदिर 2 और जैन मंदिर 3 बने हुए थे…किसी मंदिर में कोई मूर्ति नहीं थी मगर हर मंदिर अपनी अद्भुत स्थापत्य कला के कारण ठहर जाने को विवश कर रहा था। अब आगे रास्ता खत्म हो चुका था…पगडंडी थी। किले में घुसते समय हमने पानी की बोतलें नहीं ली थीं यह सोचकर कि कौन उठा कर ले जाए, अंदर व्यवस्था तो होगी ही। किले पर चढ़ते समय एक जगह वॉटर कूलर लगा था, मगर हमने पानी नहीं पिया। हरे नारियल बिक रहे थे मगर सुबह जमकर नाश्ता किया था तो उसे लेने का भी मन न हुआ। मगर अब हम जिस रास्ते पर थे वहाँ कहीं पानी नहीं था।धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए। अब भूख तो नहीं मगर प्यास लग रही थी । उस कच्चे रास्ते पर टोपलियाँ उठाए आदिवासी स्त्रियाँ जा रही थीं। छोटे -छोटे बच्चे भी जा रहे थे। उनसे पूछा तो बोले नीचे घर हैं हमारे। मुझे यह बात रोमांचित कर रही थी कि ये सब इस अजेय दुर्ग की दीवार में फैले साम्राज्य के वासी हैं। स्त्रियों से पूछा कि टोपली में क्या है? तो उन्होंने टोपलियाँ खोल दीं। ओह हो…बहुत बड़े- बड़े पके हुए सीताफ़ल थे। संतरामपुर में सीताफ़ल दीवाली के आसपास आते हैं। मैं अब तक वहीं के सीताफ़ल को सबसे अच्छा समझती थी, लेकिन यहाँ अगस्त महीने में इतने बड़े और पके हुए सीताफ़ल देखकर मेरी तो आँखें फटी रह गयीं। फटाफट चार सीताफ़ल खरीदे और कच्चे रास्ते पर बनी एक पुलिया पर बैठकर खाये…यूँ कहिए कि बावन देवरी तक पहुँचने की ऊर्जा बटोरी। सीताफ़ल से प्यास भी बुझी और मन भी तृप्त हुआ। फिर चल दिए कभी चारों तरफ़ फ़ैले जंगल को निहारते, तो कभी दूर तक फैली अजेय-अभेद्य दीवार को निहारते। तीन-एक किलोमीटर के बाद लगा कि अब कोई सरंचना दिखाई दे रही है। क्या यह बावन देवरी ही है…पैर और तेज चलने लगे …जैसे जैसे बावन देवरी मंदिर नजदीक दिखने लगा…मेरे पैर थमने लगे, ओह दूर -दूर तक फैली हरीतिमा के बीच गर्व और दर्प से शीश उठाकर खड़ा हुआ एक पुरातन मंदिर…जैसे सदियों से आँख मींचे जंगल में तपस्या करता कोई योगी। मैं मोहित थी वहाँ पसरी शांति और पवित्रता से…दूर सुदूर कोई नहीं, बस पक्षियों की आवाजें और मोर का टहुका । मैं वहीं दूर बैठ गई एक वृक्ष के नीचे…उस तपस्वी के एकांत को भंग करने की हिम्मत ही न हुई। उसे उसके जैसा बनकर ही देखा जा सकता था। तकरीबन आधे घण्टे तक दूर से निहारते रहने के बाद मैं बावन देवरी के नज़दीक पहुँची …चारों तरफ़ घूम कर देखा ।

यह बावन छतरियों वाला एक शानदार जैन मंदिर है। दरवाजे पर ताला लगा था, लेकिन छोटी छोटी खिड़कियों से अंदर झाँका जा सकता था। बावन देवरी 1464 में बनाया गया एक प्रसिद्ध जैन मंदिर है। इसका नाम मुख्य मंदिर के चारों ओर बने 52 (बावन) मंदिरों से लिया गया है। बड़े मंदिर में एक गर्भगृह, अंतराल और एक खुला मंडप है। द्वार के ललाटबिंब पर जैन तीर्थंकर की एक छवि खुदी हुई है।
छोटे मंदिरों में कोई मूर्ति नहीं है।
तकरीबन एक घण्टा हम वहाँ रहे…कितनी शांति..मन की शांति…तन की शांति…चलने की सारी थकान कहीं छू हो गई थी….आँखों में तो दृश्य बस ही गया था मगर कुछ तस्वीरें कैमरे में भी कैद की …और एक तृप्त भाव के साथ चल दिए किले से बाहर निकलने की राह पर …

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