डॉ कांति कुमार जैन नहीं रहे
ख्यातिलब्ध साहित्यकार डॉ कांतिकुमार जैन – जिन्होंने संस्मरण लेखन को एक नई पहचान दी, हमारे बीच नहीं रहे।
9 सितम्बर 1932 को देवरीकलाँ (सागर) में जन्मे कांतिकुमार जैन ने सागर विश्वविद्यालय में 1992 तक अपनी सेवाएं प्रदान कीं। वे माखनलाल चतुर्वेदी पीठ, मुक्तिबोध पीठ, बुंदेली शोध पीठ में अध्यक्ष के पद पर भी रहे हैं। उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ की जनपदीय शब्दावली’ पर विशेष शोध कार्य किया है। वे अपनी बात को मजबूती से कहने के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रोफेसर जैन की रचनाओं में छत्तीसगढ़ी बोली व्याकरण और कोश, भारतेंदु पूर्व हिन्दी गद्य, कबीरदास, इक्कीसवीं शताब्दी की हिंदी, छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियाँ, शिवकुमार श्रीवास्तव : शब्द और कर्म की सार्थकता, सैयद अमीर अली ‘मीर’, लौटकर आना नहीं होगा, तुम्हारा परसाई, जो कहूँगा सच कहूँगा, बैकुंठपुर में बचपन, महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर, पप्पू खवास का कुनबा, लौट जाती है उधर को भी नजर आदि प्रमुख हैं। उन्होंने बुंदेलखंड की संस्कृति पर केंद्रित ‘ईसुरी’ नामक शोध पत्रिका का संपादन किया है। डॉक्टर जैन ने ‘भारतीय लेखक’ के परसाई अंक का ‘परसाई की खोज’ के नाम से अतिथि संपादन भी किया है। मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रतिष्ठित भवभूति अलंकरण – 2012 उन्हें प्रदान किया गया था।
‘छत्तीसगढ़ मित्र परिवार’ की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।