November 15, 2024

दाग़ देहलवी की कुछ रचनाएं

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“दाग देहलवी”

बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं

दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं
रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं

लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं

उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं

जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं
तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं

हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते
पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं

हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं
ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं

दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह
तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं

‘दाग़’ क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं।

वो ज़माना नज़र नहीं आता…

वो ज़माना नज़र नहीं आता
कुछ ठिकाना नज़र नहीं आता

जान जाती दिखाई देती है
उन का आना नज़र नहीं आता

इश्क़ दर-पर्दा फूँकता है आग
ये जलाना नज़र नहीं आता

इक ज़माना मिरी नज़र में रहा
इक ज़माना नज़र नहीं आता

दिल ने इस बज़्म में बिठा तो दिया
उठ के जाना नज़र नहीं आता

रहिए मुश्ताक़-ए-जल्वा-ए-दीदार
हम ने माना नज़र नहीं आता

ले चलो मुझ को राह-रवान-ए-अदम
याँ ठिकाना नज़र नहीं आता

दिल पे बैठा कहाँ से तीर-ए-निगाह
ये निशाना नज़र नहीं आता

तुम मिलाओगे ख़ाक में हम को
दिल मिलाना नज़र नहीं आता

आप ही देखते हैं हम को तो
दिल का आना नज़र नहीं आता

दिल-ए-पुर-आरज़ू लुटा ऐ ‘दाग़’
वो ख़ज़ाना नज़र नहीं आता।

दाग देहलवी

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब[1]तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम[2] कौन हुआ है मुक़ाम किस का था

न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम[3] किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

इन्हीं सिफ़ात[4] से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़[5]
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम [6]किसका था

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेरे-बाम[7] किसका था

हर इक से कहते हैं क्या ‘दाग़’ बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

शब्दार्थ

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