नई सदी के तीसरे दशक का एक दिन
डाकखाने में कर्मचारियों के बीच एक युवा जो कर्मचारी ही रहा होगा
‘हिन्दू राष्ट्र तो बनकर रहेगा’
ऐसा उस समूह में कह रहा था
उसके सामने कोई मुस्लिम खड़ा होगा
पहले शिष्टाचार की विदाई होती है
शर्म मर जाती है
कु पाठ से भरी जाती हैं पोषित वार्ताएं
भाषा सुलगा दी जाती है
मैं किसी और काम में था
आवाज़ मेरे कानों में आई
‘तो हिन्दू राष्ट्र में भी रह लेंगे’
यह प्रतिवाद उस मुस्लिम का था
स्वर में कब्र जैसा सूनापन
मैंने उधर जानबूझकर नहीं देखा
मैं कहना तो यह चाहता था
फिर पाकिस्तान ही बन जाएगा यह देश
हिन्दुओं का पाकिस्तान
कहने की व्यर्थता समझ गया हूँ
विपत्ति का भी समय होता है
उसे आप टाल नहीं सकते
सभ्यताएं भी तो ऐसे ही मरती हैं
जो मुस्लिम था
उसने इसकी तैयारी शुरू कर दी थी
ऐसा लगा मुझे.
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अरुण देव