शमशेर बहादुर सिंह की कविता…
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है।
ऐसा लगता है जैसे
तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थायी ग्रास… हूँ
मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिगो सको
मुमकिन है तो।
हाँ, तुम मुझसे बोलो
जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें
सवाल करती हैं बार-बार
मेरे दिल के अनगिनती कमरों से।
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।
जहां में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारा सीना होना है।
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शमशेर बहादुर सिंह