ख़ुदेजा ख़ान की कविताएँ
ख़ुदेजा ख़ान जी को जन्मदिन की बधाई । प्रस्तुत है उनकी पांच कविताएँ । आप सक्रिय साथी हैं । संवेदना एवं विचार से पगी कविताओं से लैस ख़ुदेजा जी की कविताएँ हमारे समय की आवश्यकता हैं । सभी साथियो का स्वागत है ।
१.
गुमनाम
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हे! श्रमजीवी तुमने
पहरों आंखों को थका कर
हाथों को व्यस्त रखा कामों में
चित्त को लगाए रखा
एक ही जगह एकाग्र होकर
कि कहीं चूक न हो जाए
एक-एक नगीना तराश कर
स्वर्ण की जालीदार नक्काशी में
जड़ते रहे
और बनाया एक ख़ूबसूरत ताज
देखो अब यह ताज
सजा है पूंजी के सर पर
ऐसे देख रहा है तुम्हें
जैसे कि पहचानता नहीं।
२.
मैली हो गई चादर
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शिशु रुप में पैदा हुआ मनुष्य
निश्छल और अबोध
सफ़ेद चादर की तरह
जीवन यात्रा में
मैली होती गई चादर
संघर्ष की मिट्टी में सनी
नफ़रत के दाग़ लगे
ग्लानि के धब्बों से दाग़दार हुई
किसी ने रंजिश में
रक्त रंजित किया
कोई धोखे का रंग डालकर
कर गया बदरंग
कोई दुखों की चादर ओढ़े
घूमता रहा जीवन भर
कट्टरपंथियों ने धर्म की चादर को
बना लिया ओढ़ना- बिछौना
अंततः मैली होने से
बच न सकी मनुष्यता की चादर।
३.
शांति के लिए युद्ध
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अशांति के जनक युद्ध ने
ढंक दिया मानवता को
हिंसा के कुहासे से
डाल दी असंतोष की चादर
चैन की नींद
सो रहे लोगों पर
घायल मांओ की गोद में
नौनिहालों के करुण क्रंदन से
नहीं पिघला क्रूर शासक का ह्रदय
अपाहिज विवशता के
कटे हुए हाथों से
मदद की गुहार लगाते
असंख्य नागरिक
देखते रहे जीवन को
मृत्यु में बदलते हुए
साम्राज्यवाद की कुटिल करतूतों को
झेलती अभिशप्त देश की जनता
गवाह है प्रतिदिन जानलेवा हमलों की
शांति के लिए युद्ध को
अनिवार्य कहना
दरअसल अपने आप में
एक विरुद्धार्थी शब्द है।
४.
*इंतहा हो गई*
हमने सपना देखा
एक सुंदर दुनिया का
उन्होंने इसे युद्ध में बदल दिया
तीन पूजनीय स्थलों की पवित्रभूमि
नरसंहार का केंद्र बन गई
दैनिक जीवन छिन्न-भिन्न करके
जीवन को पहना दिया
मृत्यु का जामा
अनगिनत हत्याओं के पाप
कैसे धो पाएंगे यह धार्मिक स्थल
दो विरोधी शक्तियों के टकराव में
मनुष्यों की चकनाचूर हुई दुनिया
फिर नहीं संवर पाएगी
काश! ये आहें और कराहें
मिसाइल की तरह जा लगतीं
हत्यारों के सीने पर
इंतहा हो गई
बच्चे अपने हाथों पर
अपना नाम लिख रहे हैं
ताकि मलबे में मिली लाशों में
उनकी शिनाख़्त हो सके।
५.
*मां में एक स्त्री को देखा*
अडिग स्तंभ सी खड़ी
अपने पक्ष पर अड़ी
अनगिनत दम तोड़ती
इच्छाओं की देह से
सहेजती- चुनती उन भावनाओं को जिनकी चल रही थी अब भी सांसे
इन्हें जीवित रखने का संकल्प
देखा उसकी भाव भंगिमा में
बालिका, युवती, स्त्री
तीनों रूपों के दमन की छाया ने
जिस वृक्ष को फलने- फूलने न दिया उसे ही सींचकर
हरा-भरा रखने का दृढ़ निश्चय
एक स्त्री के हृदय में पलते देखा
मैंने मां में एक स्त्री को देखा।
– ख़ुदेजा ख़ान
जगदलपुर/छत्तीसगढ़