November 21, 2024

एक छंद और टूट गया

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कुँअर बेचैन जी भी चले गये ••

यह मौत का सिलसिला न जाने कब थमे । आज हिंदी के वरिष्ठ गीतकार डाॅ. कुँवर बेचैन जी भी चले गये । उनका बहुत प्यार और संग साथ मिला । उन पर केन्द्रित मेरा यह आलेख जिसे पढ़कर उन्होंने जी भर आशीर्वाद दिया था । अब केवल यादें •••••

प्रेमिल भाव गीतों के साधक – डाॅ. कुँअर बेचैन
सतीश कुमार सिंह
शायद ही हिंदी कवि सम्मेलन या मुशायरा का कोई मंच हो जहाँ डाॅ. कुँअर बेचैन की यह पंक्ति कवि सम्मेलन के शुरुआत में उद्धृत न की जाती हो –

पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है
पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है
चलने को एक पाँव से भी चल रहे हैं लोग
पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है ।

डाॅ. कुँअर बेचैन का काव्यात्मक परिचय देने के लिए हो या मंच की गरिमा को बनाने के लिए , यह पंक्ति मंच के संचालक द्वारा जरूर उच्चारित की जाती है । यह महत्वपूर्ण पंक्ति एक तरह से उनके गीत व्यक्तित्व की पहचान है जिसमें पूरे संवेदनशील समाज का कविता के रसात्मक पक्ष से जुड़ने के लिए प्यार भरा आह्वान है । मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे हिंदी के ऐसे विशिष्ट गीतकार के साथ कविता पढ़ने का कई बार सुअवसर मिला और उनका स्नेहिल सानिध्य लाभ भी मैंने प्राप्त किया । उनका निश्छल और आत्मीय व्यवहार सबको प्रेम के कच्चे धागे की डोर से सहज ही बांध लेता है ।
डाॅ. कुँअर बेचैन ने गीत लिखा नहीं वरन् अपनी रचनाओं से शब्दशः उसे जिया भी है । मंचों पर उनके गीत पढ़ने का अंदाज पचहत्तर वसंत पार करने के बाद आज भी एकदम अनूठा है । जब वे मंचों पर अपने गीतों की छटा बिखेरते हैं तो उनके शब्दों का जादू सबके सिर चढ़कर बोलने लगता है । उनकी लयात्मक अभिव्यक्ति जीवन को राग और सौंदर्य से भर भर देता है । हिंदी के इस अद्भुत गीत साधक के पास छंद का एक अलग ही मुहावरा है जहाँ से पीड़ा की गहरी गूँज और एक हूक सी उठती जान पड़ती है जो सबको कुछ ही पलों में अपने आगोश में ले लेती है । उनकी गजलों में भी सामयिक विचलन और विसंगतियों के साथ यथार्थवादी चिंतन का गहन ताप है । वे पूरी शिद्दत के साथ आम आदमी से जुड़कर उसके संघर्ष को अपनी वाणी देते हुए कहते हैं –

इस वक्त अपने तेवर पूरे शबाब पर हैं
सारे जहाँ से कह दो हम इंकलाब पर हैं
हमको हमारी नींदें , अब छू नहीं सकेंगी
जिस तक न नींद पहुंची , उस एक ख्वाब पर हैं ।

अपने समय के बदलाव पर नब्ज रखती उनकी ये रचनाएं हिंदी जगत के लिए किसी धरोहर से कम नहीं हैं । इस समय जब लगभग पूरी दुनिया सूचना क्रांति के माध्यम से अंतरजाल ( इंटरनेट ) से जुड़ चुका है तब भी वे चिट्ठी पत्री की संवेदना को अपने अंतर में सहेजे हुए भोथरे समय की देह पर संवेदना की पिन चुभोकर स्मृतियों को शब्द में रूपायित कर देते हैं । वे कहते हैं –

दिल से प्यारी , जाँ से प्यारी , खुद से प्यारी चिट्ठियाँ
देखती ही रह गईं हमको हमारी चिट्ठियाँ
जिस दिए की रोशनी में हमने लिक्खी थी तुम्हें
उस दिए ने ही जला डाली तुम्हारी चिट्ठियाँ ।

प्रेम के भाव से भरे इस गीतकार के भीतर एक अलग ही छटपटाहट भरी हुई है जो किसी वंचना के शिकार व्यक्ति के आलोड़न और बेचैनी को दर्शाती है । उनके गीतों से यह भाव रह रहकर छलक छलक उठता है । कुंवर बहादुर सक्सेना का कुँअर बेचैन होना उन्हें रचनात्मक जगत में स्थापित ही नहीं करता बल्कि उनके तखल्लुस को अर्थवत्ता भी प्रदान करता है । 1 जुलाई 1942 को उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले के ग्राम उमरी में जन्मे कुंवर बहादुर सक्सेना का जीवन बचपन से ही बेहद कंटकाकीर्ण पथों से गुजरा । उन्होंने भीषण अभाव में अपने स्वाध्याय से एम काॅम , एम ए ( हिंदी ) और पीएचडी की उपाधि अर्जित की और एम एच काॅलेज गाजियाबाद में रीडर पद पर नियुक्त होकर हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए । हिंदी और अंग्रेजी में समान अधिकार रखने वाले इस वरिष्ठ रचनाकार के लेखन का कैनवास बहुत बड़ा है । वे जीवन की द्वंद्वात्मकता को अपने गीतों में रोकने का प्रयास नहीं करते बल्कि उसे पूरी त्वरा के साथ उभारते हैं । वे कारूणिक ढंग से अपने जीवन के उन पक्षों का उद्घाटन भी करते नजर आते हैं जिसको बहुत से तथाकथित आलोचक आत्मपरक या आत्मालाप कहकर खारिज करने में लगे रहते हैं । जरा देखिए इस गीत में निहित कथ्य और संवेदना तो यही कहती है –

जबसे जन्म लिया है मैंने पीड़ा मेरी संगिनी
कैसे हो विश्वास कि मुझको कभी अमन मिल जाएगा ।
जिस आँगन में पाँव रखा , वह आँगन मैला हो गया
लेकिन देख न पाया कोई , शूल चुभा जो पाँव में
यह माना आशाएं मेरी , थीं गरीब गुमनाम थीं
किसने जाना छिपी अमीरी लुटी कर्ज के गाँव में
आँखों से ली छीन नींद भी खुले- खजाने रात ने
कैसे हो विश्वास कि मुझको नया सपन मिल जाएगा ।

अपने आँसुओं को छुपाकर उसे घुटन का रूप देना बेचैन जी को मंजूर नहीं है । वे उसे गाकर मुक्ति का पथ तलाशते हैं और समाज को यह संदेश भी देते हैं कि व्यथा का शब्दांकन गीत के स्वर साधन से ही संभव है । वे अपने दिली जज्बात को मुश्किल क्षणों में भी अनूदित कर देते हैं और अगर कुछ मलाल रह जाए तो यह भी कहने से नहीं चूकते –

दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना ।

यह कम गौरव की बात नहीं है कि बेचैन जी जिस तरह से काव्य सौष्ठव व संस्कार लेकर चलते हैं वह गीत की पुरातन और अधुनातन परंपरा का सेतु है जहाँ से नई पुरानी पीढ़ियों को इतना कुछ मिल जाता है कि वे भाव सुवास में तर रहते हैं । उनके गीतों पर शोध करने वालों की एक पूरी साहित्यिक जमात है । वे मंच से जितना सुने जाते हैं उतना ही पढ़े भी जाते हैं । कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में उनकी रचनाएं पढ़ाई जातीं हैं और छंद में लिखने पढ़ने वालों के लिए उनके गीत पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाते हैं । अब तक तकरीबन बीस पुस्तकों का लेखन कर चुके कुंवर बेचैन की पहली किताब 1972 में गीत संग्रह ” पिन बहुत सारे ” नाम से प्रकाशित हुई । फिर भीतर सांकल , बाहर सांकल ( 1978 ) ” उर्वशी हो तुम ” ( 1987 ) झुलसो मत मोरपंख ( 1990 ) नदी पसीने की ( 2005 ) गजल संग्रह – शामियाने काँच के तथा महावर इंतजारों का ( 1983 ) रस्सियाँ पानी की ( 1987 ) पत्थर की बाँसुरी ( 1990 ) दीवारों पर दस्तक ( 1991 ) नाव बनता हुआ एक कागज ( 1992 ) आग पर कंदील ( 1993 ) आंधियों में पेड़ तथा आंगन की अलगनी ( 1997 ) तो सुबह हो ( 2001 ) कोई आवाज देता है ( 2005 ) कविता संग्रह – नदी तुम रूक क्यों गई , शब्द एक लालटेन ( 1997 ) के अलावा एक उपन्यास ” मरकत द्वीप की नीलमणि ” पांचाली ( महाकाव्य ) गजल का व्याकरण ( 1997 ) उनकी प्रमुख कृतियां रहीं । उन्होंने सुर – संकेत नामक त्रैमासिक पत्रिका का संपादन भी किया तथा माॅरीशस , रूस , सिंगापुर ,इंडोनेशिया ,ओमान , अमरीका , दुबई, सूरीनाम , कनाडा , यू .के. में कविता पाठ कर हिंदी की सेवा की । डाॅ. कुंवर बेचैन को इस दौरान कई पुरस्कारों एव सम्मान से नवाजा गया जिनमें ” हिंदी साहित्य अवार्ड ( 1997 ) उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान ( 2002 ) परिवार पुरस्कार सम्मान , मुंबई ( 2004 ) राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैल सिंह एवं महामहिम डाॅ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा भी वे सम्मानित किए गए । ऐसे शीर्ष गीतकार के सानिध्य लाभ से रचनात्मक तौर पर समृद्ध होने वालों में मैं भी एक बंदा रहा हूँ । वे जब भी जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव के कार्यक्रम में हमारे शहर जाँजगीर आते हैं उनका सामीप्य हममें एक नई उर्जा भर देता है । सूफियाना मिजाज के इस बड़े गीतकार के दरस परस से हमें कितना कुछ मिल जाता है यह उनके जाने के बाद के एकांतिक क्षणों में पता चलता है । जब 2014 में वे हमारे जांजगीर के अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में आगरा के वरिष्ठ गीतकार दादा रामेंद्र त्रिपाठी जी के साथ आए हुए थे तब हम सभी आयोजन से जुड़े साथी उन्हें विदा करने जब रेलवे स्टेशन गए तो उन्होंने और दादा रामेंद्र त्रिपाठी जी ने हमें ट्रेन में चढ़ने से पहले उत्तर भारत की परंपरा का हवाला देकर सौ सौ रूपए के नोट थमाए और कहा कि विदा के वक्त हमारे यहाँ बड़े अपने से छोटों को यह नेग देते हैं इंकार मत करना । हमने भी उन्हें बताया कि यह परंपरा हमारे छत्तीसगढ़ में भी है और उनका नेग स्वीकार कर लिया । मैंने आज तक दोनों के दिए हुए नोट नहीं खरचे हैं। जब भी उन्हें छूता हूँ एक अजब सी खुशबू आती है उन नोटों से । यह भावातिरेक है पर ऐसा अगर है तो इस बात को कहने से क्यों बचा जाए !
बेचैन जी अब पचहत्तर के होने जा रहे हैं लेकिन रचनात्मक उर्जा से भरे वे आज भी समय के सच को अपनी लेखनी से उजागर कर रहे हैं । उनकी सदाशयता और प्रेमिल छवि का स्मरण करते हुए उनकी यह लाजवाब पंक्तियाँ बार बार ज़ेहन में कौंध जाती है –

अपने मन में ही अचानक यों सफल हो जाएंगे
क्या खबर थी आपसे मिलकर गजल हो जाएंगे
भोर की पहली किरन बनकर जरा छू लीजिए
आपकी सौगंध खिलकर हम कमल हो जाएंगे ।

पुराना कालेज के पीछे
जांजगीर
जिला – जांजगीर – चांपा ( छत्तीसगढ़ ) 495668

मोबाइल नं. 94252 31110

अलविदा दादा कुँअर बेचैन

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