पुस्तक चर्चा : नया रास्ता
हरे प्रकाश उपाध्याय के गद्य और पद्य, दोनों, का मैं प्रशंसक रहा हूँ. उनके उपन्यास ‘बखेड़ापुर ‘ को मैं हिंदी उपन्यासों में एक मील का पत्थर मानता हूँ. यही नहीं, समय – समय पर विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली उनकी कवितायें भी मेरे मन की गहराईयों तक पहुँच उनका स्पर्श करती रही हैं. यही कारण रहा कि मैं उनके नये कविता – संग्रह ‘ नया रास्ता ‘ को मुझ तक पहुँचाने वाले अपने गाँव के रास्ते पर खड़ा बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था. यह ‘नया रास्ता ‘ कल मुझ तक पहुँचा. ‘नया रास्ता ‘ से होकर गुजरते हुए मैंने पाया कि यह प्रश्न बड़ी मुखरता के साथ मेरे सामने आ खड़ा होता है :
“भारत क्या सिर्फ एक भूगोल का नाम है…?”
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संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए जगह – जगह पर उनकी पंक्तियों में मैंने जैसे स्वयं को ही पाया :
मैं अपने घर में रहता हूँ
दरअसल मैं अपने घर में नहीं अपने भीतर रहता हूँ
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मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ
थोड़ी देर सहकर्मियों के षड्यंत्र सूँघता हूँ
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दफ़्तर जाकर काम निपटाता हूँ
इसको डाँटता हूँ उससे डाँट खाता हूँ
दफ़्तर में ढेर सारे गड्ढे
इसमें गिरता हूँ, उसे फाँदता हूँ
यहाँ डूबता हूँ वहाँ निकलता हूँ
कुर्सी तोड़ता हूँ कान खोदता हूँ
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कोई नहीं पढ़ता हाशिये का मौन
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कई – कई शहरों में कई – कई बार गया
कहीं दोस्तों ने ठग लिया
कहीं उसके मालिकों ने मार लिया मेहनताना
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लोग सरकारी दफ्तरों में भकुआए हुए घूमते हैं
इस मेज से उस मेज पर दुरदुराये जाते हुए
लोग न्याय की तलाश में लूटेरों के गिरफ्त में फँस जाते हैं
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कविता – संग्रह अभी तसल्ली के साथ पूरा नहीं पढ़ पाया हूँ पर उपर दी गयी पंक्तियों को उद्धरित कर पोस्ट करने से स्वयं को नहीं रोक पाया. जल्दी ही इस टिप्पणी को विस्तार दूँगा. तब तक मेरी इस पोस्ट को पुस्तक मुझ तक पहुँचने की पावती समझा जाये.