सारंगढ़ के चावल और हैदराबाद की बिरयानी
डॉ. परिवेश मिश्रा
साल 1946 के शुरूआती तीन महिनों में सारंगढ़ राज्य के हर गांव में ढेंकियों की आवाज़ गूंज रही थी। गांवों और राज्य की उत्तरी सीमा बनाती महानदी के बीच के सारे रास्ते बैलगाड़ियों की कतारों से पट गये थे। कच्चे रास्तों के हिचकोलों में बैलगाड़ियों में लदे बोरों से छलक कर चावल के कुछ दानों को धरती पर गिरना ही था। चूहे ओवरटाइम काम कर रहे थे। खेत से निकलकर रास्ते पर आना और दानों को उठाकर दौड़ते हुए मेढ़ पर बने अपने बिल तक ले जाकर भंडारण करना और फिर लौटकर आने ने तो उनका पसीना ही निकाल दिया था।
यह सब हो रहा था सारंगढ़ के चावल की गुणवत्ता, प्रसिद्धि और लोकप्रियता के कारण। और इसके पीछे योगदान था अंचल के मेहनती और प्रयोगधर्मी किसानों का।
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हैदराबाद की बिरयानी की शोहरत वहां के नवाब साहब के दस्तर-ख़्वान से उठकर दुनिया-जहाँ में फैल चुकी है। किन्तु नवाब साहब के अपने निजी बावर्चीख़ाने या रसोई-घर में छत्तीसगढ के सारंगढ़ से विशेष तौर पर मंगाया हुआ खुशबूदार चावल पकाया जाता था यह तथ्य अल्पज्ञात ही रह गया।
दूसरे विश्वयुद्ध के कारण सारंगढ़ से चावल निर्यात करने में रुकावट आयी थी। ब्रिटेन में अन्न के संकट से निपटने के लिए बड़ी मात्रा में अनाज भारत से भेजा गया था। और भी कारण थे जिनके चलते अंग्रेज़ों ने बाज़ार में अनाज की खुली बिक्री पर रोक लगा दी थी। 1943 में पहली बार राशनकार्ड की व्यवस्था लागू की गयी थी। उस वर्ष सीपी (सेन्ट्रल प्रॉविन्सेज़) राज्य के सबसे बड़े शहर नागपुर में 210 राशन दुकानों से शुरुआत हुई थी। किन्तु 1945 में युद्ध समाप्त होते ही नवाब साहब ने सारंगढ़ से चावल आयात करने की अपनी मांग अंग्रेज़ों के सामने रख दी। हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हो पाये थे लेकिन हैदराबाद न केवल भारत का सबसे बड़ा राज्य था बल्कि सबसे धनाड्य भी था। उसकी मांग को अनदेखा करना अंग्रेज़ों के लिए आसान नहीं था।
12 अक्टूबर 1945 के दिन राजा जवाहिर सिंह जी की अध्यक्षता में सारंगढ़ राज्य की “स्टेट काउंसिल” की मीटिंग हुई। एक तरह की केबिनेट मीटिंग। इसमें शिक्षा मंत्री युवराज नरेशचन्द्र सिंह जी और दीवान श्री रामदास नायक जी के अलावा अन्य विभागों के मंत्री तथा अधिकारी मौज़ूद थे। एजेन्डा के अन्य विषयों के साथ सेन्ट्रल प्रॉविन्सेज़ सरकार के फ़ूड सेक्रेटरी आय. सी. एस. अधिकारी श्री एच.एस. कामथ से प्राप्त एक पत्र पर चर्चा हुई। (1956 में बने नये मध्यप्रदेश में श्री कामथ राज्य के प्रथम चीफ़ सेक्रेटरी नियुक्त हुए थे।)
पत्र में “हैदराबाद नवाब की रसोई” के लिए पांच सौ टन “उच्च गुणवत्ता वाले” खुशबूदार चावल की मांग की सूचना दी गयी थी। आयात-निर्यात के इस सौदे में अंग्रेज़ सरकार की भूमिका स्व-नियुक्त बिचौलिए की थी। मिल परिवहन के लिए जिन रेलगाड़ियों की ज़रूरत थी उसपर उनका एकाधिकार था। साथ ही भुगतान का जिम्मा भी उन्ही का था।
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पत्र में लिखे “उच्च गुणवत्ता वाले” चावल से आशय “ढेंकी में कुटे” चावल से था। सारंगढ़ के ढेंकी में कुटे खुशबूदार चावलों से हैदराबाद के नवाब को परिचित कराने की कहानी शुरू हुई थी सन 1930 में जब कुछ महत्वपूर्ण मेहमानों ने सारंगढ़ आकर कुछ दिन गिरिविलास पैलेस में गुजारे थे। उनमें से एक थे सर मोहम्मद सलेह अकबर हैदरी और उनकी स्वीडिश मूल की पत्नी सिगरिद।
आज़ाद भारत में सर हैदरी असम राज्य के प्रथम गवर्नर नियुक्त हुए थे। किन्तु 1930 में जब वे सारंगढ़ आये तब दरभंगा स्थित इम्पीरियल काउंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च के सचिव थे। यह वही संस्था है जो बाद में दिल्ली शिफ़्ट हुई, इम्पीरियल की जगह इंडियन शब्द चस्पा हुआ और आम प्रचलन में पूसा इन्स्टीट्यूट के नाम से जानी गयी।
मेहमानों का यह दल रायगढ़ स्टेशन पर अपने सलून छोड़कर आया था (सलून रेल के डब्बे होते थे जिन्हे फेरबदल कर महत्वपूर्ण लोगों के लिए चलते फिरते घर का रूप दिया जाता था)। सारंगढ़ से बिदाई के समय सर हैदरी अपने साथ खुशबूदार चावलों की कुछ बोरियां भी ले गये। वापस घर पहुंचने पर अन्य लोगों के अलावा सर हैदरी के पिता और मां ने भी इन चावलों का स्वाद जाना। सर सलेह अकबर हैदरी का परिवार बोहरा समाज का विशिष्ट परिवार रहा है। पिता सर अकबर हैदरी हैदराबाद राज्य के प्रधान मंत्री थे। मां अमीना हैदरी भारत में “कैसर-ए-हिन्द” ख़िताब पाने वाली पहली महिला थीं। इनके अलावा इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके नाना बदरुद्दीन तैयब जी से लेकर चौथी पीढ़ी में फ़िल्म अभिनेत्री अदिति राव हैदरी तक इस परिवार ने अनेक सेलिब्रिटी दिये हैं। सर सलेह अकबर हैदरी के माता पिता ही वे सूत्र थे जिनके मार्फ़त सारंगढ़ के चावलों का स्वाद हैदराबाद के नवाब मीर उस्मान अली खान तक पहुंचा और इसके बाद तो सिलसिला चल निकला था।
सारंगढ़ राज्य को मिला निर्यात ऑर्डर विश्वयुद्ध के कारण आयी आर्थिक मंदी से उबरने में सहायक होने जा रहा था। किन्तु कुछ तात्कालिक समस्याएं सामने थीं।
युद्ध के चलते महंगाई बहुत बढ़ गयी थी। पुराने रेट व्यवहारिक नहीं रह गये थे। अतः उस दिन स्टेट काउंसिल ने अपनी बैठक में पहला निर्णय यह लिया कि एक प्राईस-फिक्सिंग-कमेटी बना कर कीमत तय की जाए। कमेटी की सिफ़ारिश पर फ़ूड सेक्रेटरी को सूचित किया गया – लगभग धमकी के स्वर में – कि पुरानी कीमतों में बढ़ोतरी के बिना निर्यात संभव नहीं है। बढ़ा हुआ रेट स्वीकार कर लिया गया। रेट था आठ रुपये और चौदह आना प्रति मन।
राज्य में अनाज की कमी नहीं थी। ढेंकी भी गांव-घर में उपलब्ध थी। इसके बावज़ूद चावल की तत्काल उपलब्धता एक समस्या थी। दरअसल ढेंकी का उपयोग बिना आवश्यकता नहीं होता था। धान जितना पुराना हो उतना मूल्यवान माना जाता था। जो अपना धान जितने अधिक सालों तक नहीं बेचे वह उतना बड़ा किसान। और उसी के अनुपात में गांव और समाज में रौब का हकदार।
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सारंगढ़ राज्य को ऑर्डर मिला था पांच सौ टन चावल का। किन्तु नापने-तौलने के लिए “टन” का उपयोग यहां नहीं होता था। गांवों में प्रचलित पैमाने अलग थे। हालांकि माप या पैमाने का कोई मानकीकरण तब तक नहीं हुआ था।
खेत में मजदूरी का भुगतान “ओंजरा” से होता था या “मान” से। ओंजरा अर्थात दोनों हथेलियों को जोड़कर जितना धान उसमें समा जाए। “भूथिया” से भी मज़दूरी दी जाती थी। खम्हार जैसे वृक्ष की हल्की लकड़ी से बना कटोरीनुमा भूथिया लगभग एक सेर के बराबर माना जाता था। नापने/तौलने की सबसे छोटी इकाई थी “मान” – बाद के दो पाव या आधा सेर के बराबर या आसपास। चार मान या दो-तीन ओंजरा में एक तामी बनता था। तामी एक बर्तन था जो कुछ लोटा और कुछ कटोरे की शक्ल का होता था। हर दो चार कोस में पानी और बानी बदलने की कहावत की तरह इस तामी का साईज़ भी बदलता रहता था। लगभग एक दशक पूर्व तक सारंगढ़ के ग्रामीण अंचल में बेटी के दहेज में दिये जाने बर्तनों में तामी अनिवार्य रूप से शामिल किया जाता था। यह इस बात का संकेत होता था कि लड़की खाते-पीते ऐसे घर की है जो “भूति” (कृषि मजदूरी) देने की हैसियत रखता है। एक तामी लगभग दो सेर के बराबर था।
बीस तामी से मिलकर बनता था एक खण्डी या खांड़ी। अपने खेत का साईज़ बताने के लिए एकड़ या डेसिमिल की अपेक्षा “इतनी खांड़ी का खेत” तरीका आज भी प्रचलित है।
डेढ़ खण्डी का एक “बौगा” था। बौगा दरअसल बांस का बड़ा टोकना था। इसी तरह दूसरी ओर एक और टोकना या बौगा मिलाकर एक कांवर बनता था। कांवर उठाकर परिवहन करना हर किसी के बस की बात नहीं थी। एक कांवर चावल अर्थात कंधों पर लगभग अढ़ाई मन का भार।
पांच कांवर का वजन एक गोना कहलाता था और चार से पांच गोना बराबर एक गाड़ी। इस तरह एक बैलगाड़ी, अपने साईज़ और बैलों की तन्दरुस्ती के अनुपात में, 10 से 20 बोरा चावल ढोती थी।
किन्तु बोरियां चूंकि मन के हिसाब से (40 सेर) भरी जाती थीं इसलिए भेजी जाने वाली बोरियों की संख्या ग्यारह हज़ार से अधिक हो गयी थी और उन्हे ढोने वाली बैलगाड़ियों या फेरों की संख्या कोई हज़ार के आस-पास।
बोरियों की व्यवस्था बड़ी समस्या नहीं थी। इलाके में पटसन की पैदावार बहुत थी। पटसन ग्रामीण जीवन का अविभाज्य अंग था। मवेशी को बांधने, और बारदाना बनाने से लेकर खटिया बुनने तक इसके उपयोग का विकल्प नहीं था। बंगाल की जूट मिलों के लिए यहां से निर्यात भी किया जाता था। 1928 में रायगढ़ की जूटमिल भी प्रारम्भ हो गयी थी।
जनवरी 1946 में राजा जवाहिर सिंह जी का निधन हो गया। उनके उत्तराधिकारी राजा नरेशचन्द्र सिंह जी की देखरेख में राजकाज जारी रहा। तब तक गतिविधियां जोर पकड़ चुकी थीं। तयशुदा समय सीमा 31 मार्च 1946 तक सारंगढ़ राज्य ने चावल की सप्लाई पूरी कर दी। अगले साल तक देश की परिस्थितियां बदल चुकी थीं। नये निज़ाम में नयी व्यवस्थाएं उभरीं और सारंगढ़ के चावल और हैदराबाद की बिरयानी के बीच 1930 से चलता आ रहा रिश्ता इतिहास बन गया।
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गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ 496445