भारत से परिचय : भारत के प्राचीन इतिहास की खोज
भारत मे ब्रिटिश साम्राज्य का अधिपत्य होना इसके ‘भाग्य’ के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। साम्राज्यवाद चाहे जो भी दावा करे,अपने उपनिवेश से उसका सम्बन्ध मालिक और गुलाम का ही होता है। मालिक के कुछ ‘रहमो’ से उसके अत्याचारों और शोषण चक्र को भुलाया नहीं जा सकता। ब्रिटिश साम्राज्य की ‘प्रगतिशीलता’ के तमाम दावों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
बावजूद इसके ब्रिटिश साम्राज्य भारतीय समाज के सामंती चरित्र के एक हद तक टूटने का एक माध्यम तो बनता ही है।डाक,तार,रेलवे,आधुनिक शिक्षा और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का उनके माध्यम से यहां प्रवेश पहले-पहल होता है। मगर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि बिना ब्रिटिश अधिपत्य के यहां इन चीजों का प्रवेश होता ही नहीं।पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति जनित तकनीकों और ज्ञान का देर-सबेर प्रसार होना ही था,क्योंकि व्यापार से दुनिया के बड़े हिस्से जुड़े हूए थे।
ब्रिटिश पूर्व भारत मे ‘आधुनिक’ ढंग से इतिहास लेखन की परंपरा शुरू नहीं हो सकी थी।मुगल काल मे एक हद तक दरबारी इतिहास लेखन की परंपरा थी,मगर प्राचीन भारत के अध्ययन का उनके लिए कोई ‘जरूरत’ नहीं थी,न ही आधुनिक ढंग से पुरातत्व के अध्ययन का कोई विकास हो सका।यही कारण है जब ब्रिटिश यहां आए तो ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो अशोक के अभिलेखों(ब्राम्ही लिपि) को पढ़ सके।
ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों/विद्वानों को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने पहले-पहल भारत के इतिहास,पुरातत्व,स्थापत्य,कला, वनस्पति,जीव-जंतु आदि पर ‘आधुनिक’ ढंग से अध्ययन की शुरुआत की। इसी क्रम में विलियम जोन्स के प्रयासों से 1784 में ‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ की स्थापना हुई जिससे भारत सम्बन्धी अध्ययन ‘इंडोलॉजी’ की शुरुआत हुई। धीरे-धीरे इस संस्था और उसके द्वारा प्रकाशित जर्नल से विभिन्न क्षेत्रों के रुचि सम्पन्न अधिकारी/विद्वान जुड़ते गए और भारत सम्बन्धी ‘रहस्य’ खुलते चले गए।
लेकिन अध्ययन का उनका दृष्टिकोण जिसे आगे ‘प्राच्यवादी (ओरियंटेलिज्म)’ कहा गया पूर्णतः तटस्थ नहीं था। यह काफ़ी हद तक ‘पश्चिमी श्रेष्ठता’ के पूर्वग्रह से ग्रस्त था।यही कारण है कि यह दृष्टि भारत में जो कुछ भी श्रेष्ठ अथवा महत्वपूर्ण है उसे कहीं और से आया हुआ अथवा प्रभावित मानकर चलता था। प्राचीन भारत मे चाहे स्थापत्य हो, मूर्तिकला, साहित्य,लिपि अथवा तकनीक हो यह दृष्टि से यूनान अथवा मिस्र आदि से प्रभावित मानकर चलती थी।यह दृष्टिकोण आज भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है;अध्येताओं का एक वर्ग आज भी इससे प्रभावित दिखाई पड़ता है।इसका मतलब यह भी नहीं कि भारतीय स्थापत्य,कला में अन्यों का कोई प्रभाव ही न पड़ा हो।समय-समय पर आक्रमण आदि विभिन्न कारणों से आने वाले ‘विदेशियों’ के कला का भारतीय कला पर प्रभाव पड़ता रहा है। मूर्तिकला की गांधार शैली में यूनानी प्रभाव का अक्सर जिक्र किया भी जाता है। इसी तरह तुर्कों, मुगलों आदि के भी अपने प्रभाव रहे हैं।
आगे इस दृष्टिकोण का विरोध हुआ। इस संदर्भ में एडवर्ड सईद की पुस्तक ‘ओरियंटलिज्म'(1978) काफ़ी चर्चित भी हुई।यह मानकर चलना भी उचित नहीं होगा कि सारे पश्चिमी लेखक इस दृष्टिकोण से प्रभावित रहें।उनमें भी मतभिन्नता था तो भारत के प्रति प्रेम भी रहा है। मसलनन यदि मैकाले जैसे लोग पूर्वीय ज्ञान की कोई कीमत नहीं समझते थे तो विलयम जोन्स जैसे सह्रदय विद्वान भी थे। सवाल सिर्फ प्रेम या सहानुभूति का नहीं दृष्टिकोण का भी है तो इसे युगीन सीमाओं में भी देखना होगा।उन्नीसवीं सताब्दी के पूर्वार्ध में जब अनुसंधान पर्याप्त नहीं हुए थे और अधिकांश चीज़ें धुंधलके में थी तब पूर्वग्रह और अटकलबाजी के प्रभावी होने की स्थिति अधिक थी। बाद के अनुसंधान से चीजें स्प्ष्ट होती गयीं तो स्वयं ब्रिटिश अध्येताओं के दृष्टिकोण में बदलाव आया।
चर्चित इतिहास लेखक जॉन के की पुस्तक ‘इंडिया डिस्कवर्ड’ ( हिंदी अनुवाद ‘भारत से परिचय’) नामानरूप उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश संरक्षण में भारतीय इतिहास एवं कला में हुए शोध की रोचक कहानी प्रस्तुत करती है।पुस्तक 1981 में लिखी गई थी,जिसका तीसरा संस्करण 2001 में प्रकाशित हुआ ।पुस्तक का हिंदी अनुवाद संजना कौल ने किया है
जॉन के औपनिवेशिक इतिहास लेखन की सीमाओं नजरअंदाज नहीं करते,उनकी सीमाओं और पूर्वग्रह को बताते भी हैं मगर उनके लगन और जुनून को भी उचित महत्व देते हैं।2001 की भूमिका में वे लिखते हैं –
“भारत मध्य-पूर्व की तरह नहीं है. इसका औपनिवेशिक संपर्क भिन्न प्रकृति का था. बर्बरता के कृत्यों के साथ कुछ संरक्षण के कार्य भी थे, पूर्व के अपमान के हर पैराग्राफ के एवज में विस्मयकारी आश्चर्य के पृष्ठ भी थे। प्रस्तुत पुस्तक मे दोनों ही का पूरा प्रतिनिधित्व है। सम्यक रूप से देखने पर, मेरा मानना है कि ‘राज’ के विद्वानों के लिए भारत की विरासत विरोधी ‘अन्य’ या हाशिए की वस्तु नहीं थी, बल्कि एक भव्य अस्तित्व थी, जिसके प्रति वे सरोकार व गर्व महसूस कर रहे थे। वह उनके लिए वास्तव में साम्राज्य का आभूषण थी — ज्वैल इन क्राउन! बेशक, इस तरह के अध्ययनों ने साम्राज्यवादी मानसिकता को संतुष्ट किया।कोई भी अध्ययन पूरी तरह से निरपेक्ष नहीं है, वह प्राच्यवादी हो या उनकी आलोचना।”
पहले संस्करण की भूमिका में भी उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि भारत की उपलब्धि के प्रति पश्चिम के मनोवृत्ति में लगातार बदलाब आता गया और इसमे स्वयं ब्रिटिश अध्येताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।कुल मिलाकर वे इन अध्ययनों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं, जो सार्थक है।
इन अध्येताओं में जॉन के ने विलियम जोन्स, जेम्स प्रिंसेप,अलेक्जेंडर कनिंघम का विशेष उल्लेख किया है। विलियम जोन्स एक न्यायाधीश के रूप में भारत आए थे।इस क्रम में हिन्दू विधि संहिताओं को समझने के लिए संस्कृत और अन्य भाषाएं सीखी।फ़ारसी आदि का उन्हें पूर्व ज्ञान था। उनके जिज्ञासु और शोधवृत्ति ने भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को समझ लिया और इस तरह तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की नींव पड़ी। संस्कृत साहित्य के अध्ययन से उन्होंने भारतीय इतिहास को समझने का प्रयत्न किया।अभिज्ञान शाकुंतलम का अंग्रेजी अनुवाद किया। इसके साथ ही एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की,अध्येताओं को जोड़ा। इस तरह भारतीय इतिहास के आधुनिक ढंग से अध्ययन की नींव पड़ी।
जेम्स प्रिंसेप अकादमिक रूप से सामान्य व्यक्ति थे।रसायन शास्त्र, यांत्रिकी और विज्ञान के जानकार।वे टकसाल सहायक के रूप में नियुक्त हुए थे,मगर अपनी प्रतिभा और लगन से उसने अशोक कालीन ब्राम्ही लिपि को पढ़ने में सफलता प्राप्त की और इस तरह मौर्यकालीन भारत का बहुत बड़ा रहस्य उजागर हुआ।प्रिंसेप ने जिन कठिन परिस्थितियों में अपना शोध किया वह प्रेरणास्पद है। उनका निधन अल्पायु में हो गया अन्यथा उनमें आगे और भी महत्वपूर्ण कार्य करने योग्यता थी। फिर भी उन्होंने ब्राम्ही लिपि को पढ़कर आगे के अध्येताओं के एक राजमार्ग बना दिया।
कनिंघम पहले सेना में थे।अपनी रुचि के कारण इतिहास का अध्ययन किया और आगे आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रमुख सर्वेक्षक बने। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा भारत के अलग-अलग क्षेत्रों के पुरातत्व का सर्वेक्षण कर उसे चिन्हांकित करने और उसका विवरण तैयार करने में लगाया। कहना न होगा कनिंघम का यह कार्य भारतीय पुरातत्व के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।उन्हें बौद्ध स्थलों पर विशेष रुचि थी और सारनाथ में उन्होंने उत्खनन भी किया था।
जेम्स फर्ग्युसन ने भारतीय स्थापत्य कला पर महत्वपूर्ण काम किया मगर वे धार्मिक पूर्वग्रह से ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। वे भारतीय स्थापत्य को सौंदर्य चेतना से रहित महज उपयोगितावादी दिखाने का प्रयास करते हैं।हालांकि हैलीबिड के दोहरे मन्दिर को देखकर उसकी “ख़ारिज करने वाली मानसिकता चरमराने लगी”। सल्तनत और मुगलकालीन स्मारकों में मेहराब का व्यापक प्रयोग हुआ है इसलिए उनके अनुसार इस्लाम पूर्व भारत मे मेहराब बनाने की कला नहीं थी जबकि कई बौद्ध गुफ़ा मंदिरों में मंदिरों के अग्रभाग में नुकीली मेहराब दिखाई पड़ते हैं।
कुछ लोगों कि तो ताजमहल के निर्माण में किसी यूरोपीय आर्किटेक्ट ढूंढने की ओर प्रवृत्ति रही थी जबकि इसके कोई प्रमाण नही है। जबकि जॉन रे के अनुसार “दस्तावेज यह बताते थे कि ताजमहल में जड़ाऊ काम करने वाकई सभी कारीगर हिन्दू थे। ताजमहल के बाग भी,जो इसकी शान को और भी बढ़ाते हैं, कश्मीर के एक हिन्दू ने तैयार किये थे।”जॉन के के अनुसार ताजमहल का स्थापत्य कई पूर्व प्रचलित परम्पराओं का समन्वित प्रभाव है।
आगे के अध्यायों में अजंता के गुफ़ा की खोज और उसका महत्व उजागर करने वाले जेम्स अलेक्जेंडर, मि.रैल्फ, ग्रेस्ले,अर्नेस्ट हॉवेल, कुमार स्वामी का जिक्र है। फिर वनस्पति और जीव विज्ञान में शोध करने वाले हॉजसन, विलियम कैरे, नाथेनियल वॉलीच, रॉक्सबर्ग, हूकर आदि के कार्यो का वर्णन है।
इस तरह किताब में मुख्यतः उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश अध्येताओं द्वारा भारत मे इतिहास ,कला,स्थापत्य, जैव विविधता को समझने के प्रयास, उनकी कठिनाइयों, उनकी मेहनत, उनके प्रेम और पूर्वग्रह का रोचक वर्णन है।लेखक का दृष्टिकोण तटस्थ दिखाई पड़ता है क्योकिं उसने अध्येताओं के सीमाओं को छुपाने का प्रयास नहीं किया। उन्होंने जहां भारतीयों द्वारा पुरातत्व की उपेक्षा का जिक्र किया है तो ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा विवेक रहित ढंग से रेलवे के लिए पुरातत्व का दुरुपयोग तथा सैन्य प्रयोजन के लिए किलों के स्थापत्य से छेड़छाड़ की आलोचना की है और उसे रेखांकित किया है।
बावजूद इसके विलियम जोन्स, जेम्स प्रिंसेप, कनिंघम जैसे भारतप्रेमी अध्येता हुए हैं जिन्होंने अपनी सीमाओं के बावजूद भारतीय इतिहास और संस्कृति को दुनिया के समक्ष लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह किताब इन जैसों की रोचक दस्तानों से भरी है। यह इतिहास,पुरातत्व, संस्कृति अर्थात ‘भारतविद्या’में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए जितना ज्ञानवर्धक है उतना ही रोचक भी।
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[2022]
कृति -भारत से परिचय(India Discovered का हिंदी अनुवाद
लेखक- जॉन के
अनुवादक-संजना कौल
प्रकाशन-संवाद प्रकाशन,मेरठ(उत्तर प्रदेश)
कीमत-₹350
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●अजय चन्द्रवंशी,कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो.9893728320